पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६३

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१००४ रामचरित-मानस । दो-सुचि सुसील सेवक सुमति, प्रिय कहु काहि न लाग । तुति पुरान कह नीति असि, सावधान सुनु काग ॥६॥ पवित्र, सुशील और सुन्दर मतिमान सेवक कहो किसको प्रिय नहीं लगता? हे काग! वेद पुराण ऐसी नीति कहते हैं तू सावधान होकर सुन ॥६॥ चौ०-एक पिता के बिपुल कुमारा । होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥. कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता । कोउ धनवन्त सूर कोउ दाता ॥१। एक पिता को बहुत से पुत्र भिन्न गुण, शील और आचरणवाले होते हैं। कोई परिडत, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर और कोई दानी ॥१॥ काउ सर्बज्ञ धर्म-रत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम हाई ॥ कोउपितु-भगत बच्चन मन कर्मा । सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥२॥ कोई सर्वज्ञ और कोई धर्म में तत्पर होते हैं, परन्तु पिता का प्रेम सब पर समान होता है। कोई पुत्र कर्म, मन, पचन से पिता का भक्त है, वह दूसरा धर्म सपने में भी नहीं जानता लुल प्रिय पितु मान ससाना । जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥ एहि बिधि जीव चराचर जेते । त्रिजग देव नर असुर समेते ॥३॥' वह पुत्र पिता को प्राण के समान प्यारा होता है, यद्यपि वह सब तरह से मूर्ख ही क्यो न हो ? इस तरह तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और दैत्यों के सहित जड़ चेतन जितने जीव हैं ॥३॥ अखिल विस्व यह सम उपजाया । सब्द पर मोहि बराबरि दाया ॥ तिन्ह मह जोपरिहरि मद साया। मजहिँ मोहिमन बच अरु काया ॥४॥ यह समन्न ब्रह्माण्ड मेरा उत्पन्न किया है, सर पर मेरो वरावर दया रहती है। उन में जो श्रमिमान और छल छोड़ कर मन, वचन और शरीर से मुझे भजते हैं ॥४॥ दो०-पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ । सर्व भाव सज कपट तजि, माहि परम प्रिय सोइ ॥ पुरुष, नपुंसक, स्त्री वा जड़ चेतन जीवों में कोई हो, जो सव भाव (नाते) से कपट त्याग फर मुझे भजता है वही मेरा परम प्यारा है। सो०-सत्य कहउँ खग तोहि, सुचि सेवक मम मान प्रिय । अस बिचारि भजु मोहि, परिहरि आस भरोस सत्र ॥८॥ हे पक्षी ! मैं तुझ से सत्य कहता हूँ, पवित्र सेवक मुझे प्राण के समान प्यारे हैं। ऐसा. विचार कर सब की आशा और भरोसा,छोड़ोतू मेरा भजन कर HIT