पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०६७ सुख नहीं मिलता। क्या रामचन्द्रजी का मजन किए बिना वासनाएँ मिटती हैं १ (कसी नहीं) क्या बिना पृथ्वी के कभी वृक्ष जमता (उगता) है ? ॥१॥ बिनु विज्ञान कि समता आवै । कोउ अवकास कि नम बिनु पावै ।। सदा बिना धरम नहि होई । बिलु महि गन्ध शि पानइ कोई ॥२॥ क्या बिना विज्ञान के समता पाती है ? क्या कोई आकाश के बिना स्थान पाता है? विना द्धा के धर्म नहीं होता, क्या थिना घरती के कोई महक पाता है ? ॥२॥ बिनु तप-तेज कि कर निस्तारा । जल बिनु रस कि होइ संसारा॥ सील कि मिल चिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥३॥ या विना तप के तेजा फैलोव होता है ? क्या संसार में बिना पानी के रस हो सकता है। क्या धिना विद्वानों की सेवा किये शील मिलता है ? (कभी नहीं) हे स्वामिन् । जैसे विना तेज का रूप शोभन नहीं होता ॥३॥ निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा । परस कि होइ बिहीन समीरा ॥ कवनिउँ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा । बिनुहरिमजन न भवामयनाक्षueu क्या अपने सुख के विना मन स्थिर होता है? क्या पधन के बिना स्पर्श क्षे सकता है ? (कमी नहीं)। क्या विना विश्वास के कोई लिधि हो सकती है ? विना भगवान का भजन किये संसार के भय का नाश नहीं होता ॥४॥ दो-धिनु बिस्वास भगति नहिँ, तेहि बिनु द्रवहिँ न राम । राम कृपा मिनु सपनेहुँ, जीव न लह बिखाम ॥ विना विश्वास के भक्ति नहीं होती और बिना भक्ति के रामचन्द्रजी दया नहीं करते, बिना रामचन्द्रजी की कृपा से जीव को सपने में भी चैन नहीं मिलता। to अंस विचार मतिधीर, तजि कुतर्क संसय सकल । , मजहु राम रघुबीर, करनाकर सुन्दर सुखद ॥६॥ है मतिधीर! ऐसा विचार कर सम्पूर्ण सन्देह और कुतर्कनाओं को त्याग कर सुन्दर 'सुखदायक, दया की खानि, रघुकुल के वीर रामचन्द्रजी को भजिये ।।६०॥ -निज मति सरिस नाथ मैं गाई । प्रभु प्रताप महिमा खगराई । करि जुगुति बिसेखी । यहसब मैं निज नयनन्ह देखी॥१॥ हे स्वामिन पक्षिराज ! प्रभु रामचन्द्रजी के प्रताप और महिमा को मैं ने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया है। यह मैंने कुछ विशेष युक्ति की कल्पना कर के नहीं कहा, सब अपनी कहे.न कछु आँखों देखी हुई बात