पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७३

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करता था॥१॥ जानता था ॥२॥ १०६४ रामचरित मानस। चौ० तेहिकलिजुम कोसलपुरजाई । जनमत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥ सिव सेवक धन क्रम अरु बानी। आन देव निन्दक अमिमोनी उस कलियुग में जा शुद्ध का शरीर पा कर आयोध्यापुरी में जन्म लिया । मन कर्म और वचन से शिवजी का सेवक हो कर अभिमान से दूसरे देवताओं को निन्दा धन मद मत्त परम वाचाला । उग्रबुद्धि उर दम्भ बिसाला ॥ जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी । तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥२॥ धन के मद में मतवाला, बहुत बोलनेवाला, कुटिल बुद्धि से हदय में विशाल गर्व था। यद्यपि रघुनाथजी की राजधानी में रहता था, तथापि उस समय उनकी महिमा कुछ नहीं अच जाना मैं अवध प्रमाना । निगमागम पुरान अस गावा ।। कवनेहुँ जनम अवध इस जोई । राम परायन सा परि हाई ॥३॥ अब मैं ने श्रायोध्या का महत्व जाना, वेद शास्त्र और पुराणो ने ऐसा कहा है । किसी जन्म में जो आयोध्या में निवास करता है, वह अच्छी तरह रामचन्द्रजी में लवलीन होता है ॥३॥ अवध प्रभाव जान तब पानी । जब उर बसहिँ राम धनु पानी॥ सो कलिकाल कठिन उरगारी । पाप परायन सब नर नोरो ॥१॥ आयोध्या का प्रभाव प्राणी तब जागते हैं, जब रामचन्द्रजी हाथ में धनुध-वाण लिये में निवाल करते हैं। हे गरुड़जी ! उस कठिन कलिकाल में सब स्त्री-पुरुष पाप में लगे हुए थेक्षा दो-कलिमाल अले घरख सब, लुप्त भये सदग्रन्थ । दस्मिन्ह तिज अति कलिप करि, प्रगट किये बहु पन्थ। कलि के पापों ने सब धर्मों को प्रस लिया और श्रेष्ठन्नन्थ लोप हो गये। पामण्डियों ने अपनी बुद्धि से निर्माण करके बहुत से पन्थ प्रकट किये। भये लोग सब मोहबस, लोभ ग्रसे सुमकम। सुनु हरिजान ज्ञाननिधि, कहउँ कछुक कलि-धर्म ॥६॥ सब लोग श्रज्ञान के अधीन हो गये, उन्हें शुभकर्म करने में लोभ प्रसता है । हे विष्ण के वाहन, ज्ञान निधान ! सुनिये, थोड़ा कलियुग का धर्म (स्वभाव) कहता हूँ ॥७॥ चौ०-बरनधरमनहि आखम चारी । ति बिरोध रत सब नर नारी द्विज खुतिबेचक भूप प्रजासन । कोउ नहिं मान निगम अनुसासना॥९॥ चारों वर्ण और आश्रम के धर्म नहीं रह गये, सब स्त्री-पुरुष घेद के विरोध में तत्पर ।