पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८०

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, सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११०१ परन्तु यहाँ कविजी का उद्देश कलयुग का पविन प्रभाव वर्णन करने को है, जब पुण्य और पाप कुछ नहीं होते, तय पुनीत प्रताप कहाँ से प्रमाणित होगा ? शक्षा निर्मल है। दो०-कलिजुग सम जुग आन नहि, मैं नर कर विस्वास । गाइ राम गुनगन बिमल, भव तर बिनहिं प्रयास ॥ कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, यदि मनुष्य विश्वास फरे ता रामचन्द्रओ के निर्मत गुणों को गाकर गिना परिश्रम ही संसार-सागर से पार हो जाता है। प्रगट चारि पदं धरम के, कलि महँ एक प्रधान ॥ जेनकेन विधि दीन्हे, दान करइ कल्यान ॥१०॥ (सत्य, शौच, दया, दान) ये धर्म के चारों धरण प्रसिद्ध हैं, पर कलियुग में एक ही चरण मुख्य है। जिस किसी प्रकार से दान देना कल्याण करता है ॥१०३।। सत्ययुग, त्रेता, वापर में क्रमशः चार, तीन और दो चरणों से धर्म वर्तमान रहता है, किन्तु कलियुग में धद एक ही चरण (दान) का रह जाता है। चौ०--नित जुगधर्म हेाहिँ सब केरे । हृदय राम माया के प्रेरे॥ सुद्ध सत्व समता विज्ञाना । कृत प्रभाव प्रसन्च बन जाना ॥१॥ युगों के धर्म नित्य ही रामचन्द्रजी की माया की प्रेरणा से सब के हृदय में होते हैं । जब शुद्धसात्विकभाव, समता, विज्ञान और प्रसन्न मन हो, तव सतयुग का प्रभाव जानना चाहिये ॥१॥ सत्व बहुत रज कछु रति करमा। सब विधि रुख नेता कर घरमा ॥ बहु रज सत्व स्वल्प कछु तामस । द्वापर धर्म हरण भय मानस ॥२॥ सतोगुण महत, रजोगुण थोड़ा, कर्मों में प्रीति और सब तरह से प्रसन्न रहना चेतायुग का धर्म है। राजोगुण अधिक, सतोगुण थोड़ा, कुछ तमोगुण और मन में हर्ष भय का रहना यापरयुग का धर्म है ॥२॥ तामस बहुत रजोगुन धोरा । कलि प्रभाव बिरोध चहुँ आरा ॥ बुध जुग धरम जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥३॥ तमोगुण बात, राजोगुण थोड़ा और चारों और विरोध भासना कलियुग की महिमा है। बुद्धिमान लॉग मन में युगों के धर्म को जान कर अधर्म त्याग कर धर्म में प्रीति योते हुए तीनों युगों का सूक्ष्मरीति से वर्तमान रहना वर्णन 'भाषिक अलंकार है। काल घरम नहिं व्यापहि ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही। नट कृत बिकट पट खगराया । नट सेवकाह न व्यापइ माया ॥१ कलिकाल के धर्म उनको नहीं व्यापते जिनकी रघुनाथजी के चरणों में अत्यन्त प्रीति है। करते हैं ॥३॥