पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८५

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१०१६ रामचरित मानस । भुजङ्गप्रयात-वृत्त । नमामीशमीशान निर्वाणरूपम् । विभु ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ॥ निजं निर्गणं निर्विकल्पं निरीहम् । चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम् ॥१॥ मैं मोक्ष-स्वरूप स्वामी शिवजी को नमस्कार करता हूँ, जो समर्थ, व्यापक, ब्रह्म और वेद के रूप हैं। स्वयं प्रगट होनेवाले, गुणे से परे, भदों से रहित, किसी वस्तु की इच्छा न रखनेवाले, चैतन्य, प्राकारा रूप और आकाश में बसनेवाले को मैं भजता हूँ ॥१॥ निराकारमाङ्कारमूलं तुरीयम् । गिरा शान गोतीतमीशं गिरीशम् । करालं महाकालकालं कृपालम् । गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥२॥ रूप रहित, क्षार के मूल, तुरीय, (मोक्ष रूप चैतन्य) वाणी, शान और इन्द्रियों से परे ईश्वर, कैलास के स्वामी, विकराल महाकाल के भी काल, कृपा के स्थान, गुणों के भण्डार और संसार के लगाव से अलग शिवजी को मैं प्रणाम करता हूँ॥२॥ तुषाराद्रिसङ्काशगारें मुंभीरम् । भनाभूत कोटि प्रमा श्रीशरीरम् ॥ स्फुरन्मालि कल्लोलिनी चारु गङ्गा । लसदाल बालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥३॥ 'हिमालय पर्वत के समान गौर वर्ण, सहनशील और करोड़ों कामदेव की शोभा आप के शरीर में है । मस्तक पर सुन्दर कलकल शब्द करती हुई गङ्गाजी लहराती हैं, ललाट में बाल- चन्द्रमा और गले में साँप सुशोभित हैं ॥३॥ चलत्कुण्डलं सुथनेत्रं विशालम् । प्रसन्नाननं नीलकण्ठ दयालम् ॥ मृगाधीशचाम्बर मुण्डमालम् । प्रियं शङ्कर सर्वनाथं भजामि ॥१॥ चञ्चल कुण्डल, सुन्दर विशाल नेत्र, प्रसन-मुख, गला श्याम, दया के स्थान, सिंह के चर्म का वस्त्र, नरसुण्डों की माला पहने हुए, सव के स्वामी और सब के प्यारे शङ्करजी को मैं भजता हूँ ॥४॥ शुटका में 'चलत्कुडलं ध्र सु नेत्रं विशाल' पाठ है। वहाँ सुन्दर भृकुटी और विशाल नेन अर्थ होगा। चतुर्थ चरण में, भजामि' शब्द में 'म' अक्षर-लघु है वह दीर्घ चारण होना चाहिये, शाल्यथा छन्द की गति में अन्तर पड़ता हैऔर छन्दाभन दोष आता है। यदि मुझे पाठ बदलने का अधिकार होता तो उसको 'भजामी' बना देता। प्रचण्ड प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम् । अखण्डं अजं मामुकोटिप्रकाशम् ॥ त्रयःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिम् । मजेहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥ तेजस्वी, सर्वोत्तम, प्रतिभान्वित (निमय श्रेष्ठ स्वामी, निर्विघ्न, अजन्मे, करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशवान, तीनों (दैहिक, दैविक, भौतिक ) शलों के विनाशक, हाथ में त्रिशूल लिये भाव से मिलनेवाले, भावनी के पति (शिवजी) को मैं भजता ॥५॥