पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८७

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११०० रामचरित मानस । २ तव माया बस जीव जड़, सन्तत फिरइ भुलान । तेहि पर क्रोध न करियप्रभु, कृपासिन्धु भगवान ॥ यह मूर्ख जीव श्राप की माया के अधीन होकर भुलाया हुआ निरन्तर संसार में भटकता फिरता है। हे प्रभो! आप दयासागर भगवान हैं उस पर क्रोध न कीजिये । सकर दीनदयाल अब, एहि पर कृपाल। साप अनुग्रह होइ जेहि, नाथ थोरहो काल ॥१०॥ है दीनदयाल शङ्करजी ! अब आप इस पर दयालु है।। हे नाथ ! थोड़े ही कोल में जिसमें इसका शाप अनुग्रह (अनिष्ट-निवारण) हो जाय ॥१०॥ इस प्रकरण में शिवजी के कोप रूप साव की शान्ति विप्रानुराग रूपी रतिभाव के प्रक से हुई है । यह 'समाहित अलंकार। ची० एहि कर होइ परम कल्याना । साइ करहु अब कृपानिधाना ॥ बिम गिरा सुनि परहित सोनी। एवमस्तु इति भइ नभवानी ॥१॥ हे कृपानिधान ! अब वही कीजिये जिसमें इसका परम कल्याण हो । पराये हित से युक्त बामण की वाणी सुनकर यह आकाश वाणी हुई कि ऐसा ही हो ॥१॥ जदपि कीन्ह एहि दारुन पापा । मैं पुनि दीन्ह क्रोध करि सापा । तदपि तुम्हारि साधुता देखी । करिहउँ एहि पर कृपा बिसेखी ॥२॥ यद्यपि इसने भीषण पाप किया, फिर मैंने क्रोध करके शाप दिया। तो भी तुम्हारी साधुता देख कर इस पर अधिक अनुग्रह करूंगा ॥२॥ छमासील जे पर उपकारी । ते विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥ मार साप द्विज व्यर्थ न जाइहि । जनम सहस्त्र अवसि यह पाइहि ॥३॥ जो क्षमाशील और परोपकारी हैं वे ब्राह्मण मुझे रामचन्द्रजी के समान प्यारे हैं । हे विप्र! मेरा शाप व्यर्थ न जायगा, अवश्य ही यह एक हजार जन्म पावेगा ॥३॥ जनमत भरत दुसह दुख होई । एहि स्वल्पउ नहिँ ब्यापिहि साई । कवनहुँ जनम मितिहि नहिं ज्ञाना । सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना nen हाँ-जन्मते और मरते असहनीय दुःख होता है, वह इसको थोड़ा भी न 'व्यापेगा और किसी जन्म में लक्षा शान न मिटेगा। इतना ब्राह्मण से कह कर फिर मुझे सम्बोधन करके नभवाणी हुई-चारे शुद्र ! मेरा प्रमाणिक वचन सुन ॥४॥ रघुपति-पुरी जनम तव भयऊ । पुनि त मम सेवा मन दयऊ । प्रभाउ अनुग्रह मारे । रामभगति उपजिहि उर तोरे ॥५॥ रघुनाथजी की पुरी में तेरा जन्म हुआ, फिर तू ने मेरी सेवा में मन लगाया। पुरी की महिमा और मेरी कृपा से तेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न होगी ॥५॥ . पुरी 1