पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८९

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जीइ सनु हरिजान । १११० रामचरित मानस । तनु धरउँ तजउँ पुनि, अनायास जिमि नूतन पट पहिरइ, नर परिहरइ पुरान॥ हे हरिबाहम जो शरीर धारण करता था फिर विना श्रम उसको त्याग देता था। इस तरह सहज में छोड़ता था जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग फर नया पहनते हैं। सिव राखी पति नीति अरु, मैं नहिं नहिं पावा क्लेस। एहि बिधि धरउँ बिबिध तनु, ज्ञान न गयउ खगेस ॥१०॥ शिवजी ने वेटनीति की रक्षा की और मैं ने फ्लेश नहीं पाया । हे पक्षिराज ! इस तरह बहुत सा शरीर धारण किया; किन्तु मेरा ज्ञान नहीं गया अर्थात् प्रत्येक जन्मों की सुध अब तक बनी है ॥१०॥ सभा की प्रति में 'मैं नहि पाच कलेस' पाठ है। जी-त्रिजग देव नर जो तनु धरऊँ । तहँ तहँ राममजन अनुसरऊँ । एक सूल माहि बिसर न काऊ । गुरू कर. कोमल सील सुभाऊ ॥१॥ तीनों लोकों में देवता मनुष्यादि के जो शरीर धरता था, वहाँ वहाँ रामभजन का अनु- सरण करता था। गुरुजी का कोमल स्वभाव और शील (समझ कर अपने मूर्खतापूर्ण दुरा. यह शो यह) एक दुःख मुझे कभी भूलता नहीं है ॥१॥ चरम-देह द्विज के मैं पाई । सुर-दुर्लभ पुरान सुति गाई ॥ खेलउँ तहाँ बालकन्ह. मोला । करउँ सकल रघुनायकं लीला ॥२॥ अन्तिम देह मैं ने ब्राह्मण की पाई अर्थात् वर्तमान शरीर जो शाप से काग हुआ हूँ, वेद और पुराणों ने ब्राह्मण का तनु देवताओं को दुर्लभ कहाँ है । वहाँ बालकों में मिल कर खेलता था और.सम्पूर्ण रघुनाथजी की लीला करता था ॥२॥ लभा की प्रति में 'धरमदेह मैं द्विज कै पाई पाठ है और चरम को पाठान्तर माना गया है। परन्तु यहाँ प्रसज्ञानुकूल 'चरम पाठ प्रधान और धरम' पाठान्तरु प्रतीत होता है । शुद्र तनु को प्रथम कह कर फिर हज़ार चार अजगर की देह और असंख्यों बार देवता मनुष्यादि के शरीर धारण करने की चर्चा कर के कागभुशुण्डजी कहते हैं कि सब से अन्त का शरीर मुझे ब्राह्मण का मिला, इसके बाद फिर जन्म नहीं लिया। लोमश ऋषि के शाप से वही शरीर कौएं का हुआ है जो अब तक वर्तमान है। चरम शब्द के अन्त, अन्तिम, पीछे का, पिछला; अखीर का, ये पर्यायी शब्द हैं। प्रौढ़ आये मोहि पिता पढ़ावा । समुझउँ सुमउँ गुनउँ नहि भावा त सकल बासना भागी। केवल रामचरन लय लागीं ॥३॥ वड़ा होने पर मुझे पिताजी पढ़ाने लगे, उनका पंढ़ाना मैं समझता, सुनता और विचारता था, परवा अच्छा नहीं लगता था। मन से सारी बांसनायें जाती रही, केवल रामचन्द्रजी के चरणों में लगन लगी ॥३॥