पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । रामभगति जल मम मन मोना । किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥ सो उपदेस काहु करि दाया। निज नयनन्हि देख उँ रघुराया ॥५॥ हे प्रवीण मुनिराज ! रामभक्ति रूपी जल से मेरा मन रूपी मछली किस तरह अलग हो सकता है ? दया कर के वह उपदेश कीजिये जिसमें रघुनाथजी को अपनी आँखों से देखू ॥ भरि लाचन बिलेकि अवधेसा । तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ॥ मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा । खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ॥६॥ अयोध्यानाथ को आँख भर देख कर तय निगुण ब्रा का उपदेश सुनगा। फिर मुनि ने भगवान की अनुपम कथा कही और सगुण मत का खरेडन कर निगुण का प्रतिपादन किया ॥ सभा की प्रति में खडि सगुन मत निर्गुन कपा' पाठ है। मैं निर्गुन मत करि दूरी । सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ।। उत्तर प्रतिउत्तर में कीन्हा । मुनि तनु भये ोध के चीन्हा ॥७॥ तक मैं ने निगुण मत को दूर कर अत्यन्त हठ के साथ सगुण मत का प्रतिपादन किया। इस तरह मैं ने उत्तर प्रत्युत्तर किया जिससे मुनि के शरीर में क्रोध के लक्षण प्रकट सभा की प्रति में 'तप मैं निपुन मत करि दूरी' पाठ है। कोष ज्ञानिहु के हिये। अति सङ्करपन जाँ कर कोई । अनल प्रगट चन्दन से होई ॥८॥ हे प्रभो । सुनिये, बहुत अनादर (प्राशा का उल्लासन) करने से शानियों के हृदय में भी कोष उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई अत्यन्त रगड़ करे तो सन्दन से आग पैदा होती है ॥८॥ दो बारम्बार सोप मुनि, करइ निरूपन ज्ञान। अनुमान

. हुए ॥७॥ सुनू प्रभु बहुत अवज्ञा किये । उपज ॥ मैं अपने मन बैठ तब, करउँ बिबिध मुनि धार वार क्रोध से ज्ञान का प्रतिपादन (विवेचना पूर्वक निर्णय) करते थे, तब मैं बैठामा अपने मन में तरह तरह के विचार करता था। क्रोध कि द्वैत-बुद्धि बिनु, छैन कि बिनु अज्ञान । माया बस परिछिन्न जड़, जीव कि इस समान ॥१११॥ क्या पवुद्धि के बिना कोध हो सकता है । और क्या बिना अज्ञान के बैत होता है ? (कदापि नहीं)। ईश्वर से अलग हुमा माया के अधीन मूर्ख जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है ? (कमी नहीं) ॥११॥ सभा की प्रति में 'वैत बुद्धि विनु क्रोध किमि' पाठ है । कागभुशुण्डजी मन में अनुमान करते हैं कि मुनि के मन में क्रोध विना द्वैत के नहीं है फिर अवैत निरूपण कैसा ? अमान हो से कोध आता है तब मायाधीन जीव से ईश्वर के बराबर है। १०