पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९५

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रामचरित मानस । गरुड़जी को सन्देह हुआ कि मननशील मुनि ने सगुण ब्रह्म की उपासना पूछने पर फ्रोध प्यों किया? तब कागभुशुण्डजी ने ऋषि के सच्चे दोष को छिपा कर, उस को रामच. न्द्रजी की प्रेरणा कह कर शङ्का दूर करने की चेष्टा की 'छेकोपळुति अलंकार' है। मन बच क्रम मोहि निज जनजाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥ रिषि सम अहतसीलता देखी । राम चरन बिस्वास बिसेखी ॥२॥ मन, वचन और कर्म ले मुझे अपना दास जान कर फिर भगवान ने मुनि की बुद्धि को फेरा। ऋषि ने मेरा बहुत बड़ा शोलत्व और रामचन्द्रजी के चरणों में अधिक विश्वास देख कर ॥२॥ सभा की प्रति में 'रिषि मम सहनशीलता देखी' पाठ है। । अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई । सादर मुनि मोहि लीन्ह बुलाई ॥ मम परितोष विधिध विधि कीन्हा । हरषित राममन्त्र तब दीन्हा ॥३॥ बड़े आश्चर्य से बार बार पछुताकर मुनि ने आदर के साथ मुझे बुला लिया। अनेक प्रकार से मुझे सन्तुष्ट किया और प्रसन्न होकर फिर मुझे राममन्त्र दिया ॥३॥ बालक रूप राम कर ध्याना । कहेउ माहि मुनि कृपानिधाना ॥ सुन्दर सुखद माहि अलि मावा । सो प्रथमहिँ मैं तुम्हहिँ सुनावा ॥४॥ कृपानिधान मुनि ने मुस से बालक रूप रामचन्द्रजी का ध्यान करने को कहाँ जो सुन्दर सुख देनेवाला मुझे बहुत अच्छा लगा, वह पहले ही मैं ने आप को सुनाया है ॥४॥ मुनि सोहि कछुक काल तहँ राखा । रामचरितमानस तब भाखा ॥ सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥३॥ मुनि ने मुझे वहाँ कुछ काल तक ठहराया, तब उन्हों ने रामचरितमानस वर्णन किया। सादर के साथ मुझे यह कथा सुनाई, फिर मुनि सुन्दर वचन बोले ॥५॥ । रामचरितसर गुप्त सुहावा । सम्भु प्रसाद तात में पावा ॥ ताहि निज भगत राम कर जानी । तातें मैं सब कहेउँ बखानी ॥६॥ है तात! यह सुहावना रामचरितमानस गुप्त वस्तु है, इसको मैं ने शिवजी की कृपा से पाया । तुझ को रामचन्द्रजी का सम्मा भक्त जान कर इससे सब बखान कर मैं ने कहा ॥६॥ रामभगति जिन्ह के उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिय तिन्ह पाहीं॥ मुनि मोहि बिबिधि माँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिर नावा ॥७॥ हे पुत्र ! जिनके हृदय में रामभक्ति नहीं है, उनसे यह कथा कभी न कहनी चाहिये । मुनि ने मुझे बहुत तरह समझाया और मैं मुनि के चरणों में प्रेम से मस्तक नवाया ॥७॥ $