पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२०४

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सप्तम सोपान, उत्तरकाश। कहत कठिन समुझत कठिन, साधन कठिन बिबेक । होइ घुनाच्छरन्याय ज्यों, पुनि प्रत्यूह अनेक ॥११॥ ज्ञान कहने में फटिन. समझने में कठिन और साधन करने में कठिन है। धुनाक्षरन्याय, की तरह कुछ हुआ भी तो फिर असंख्यों विधन आ पड़ते हैं ॥११॥ घुणाक्षरन्याय वह कहलाता है कि धुनों के खाते खाते लकड़ी में भक्षरों के चिन्ह बन जाते हैं, पर उनका माह का चालना बन्द नहीं होता फिर वे चिन्ह बिगड़ जाते हैं। चौ०- -ज्ञानपन्थ कृपान कै धारा । परत खगेस होइ नहिँ बारा । जाँ निर्विघ्न पन्ध निर्बहई । सो. कैवल्य परमपद लहई ॥१॥ हे विहानाध ! हानमागं तलवार की धार है, णव पड़ते देर नहीं लगती (तुरस्त पैर कट जाते हैं। यदि निर्विन रास्ता पार हो जाय तो यह जीव मोक्ष रूपी श्रेष्ठपद को प्राप्त होता है ॥१॥ अति दुर्लभ कैवल्य परमपद । सन्त पुरान निगम आगम बद ॥ राम भजत सोइ मुकुति गोसाई । अनइच्छित आवइ बरिआई ॥२॥ श्रेष्ठ मोक्ष-पद की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ सन्त, पुराण, वेद और शास्त्र कहते हैं ! हे स्वामिन् ! यही मोक्ष रामचन्द्रजी का भजन करने से बिना इच्छा के जोरवरी से आप ही भाप आती है ॥ जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करइ उपाई । तथा मोच्छसुख सुनु खगराई । रहि न सका हरिभगति बिहाई ॥३॥ जैसे बिना धरती के पानी नहीं रह सकता चाहे कोई करोड़ों तरह के उपाय करें। हे खगराज ! सुनिये, उसी प्रकार हरिभक्ति को छोड़ कर मोक्ष-सुख अन्यत्र रह नहीं अस विधारि हरिभगत सयाने । मुक्ति निरादर भगति लोभाने ॥. भगति करत बिनु जतन प्रयासा । संसृतिमूल अविद्या नासा ॥४॥ सकता ॥३॥ ऐसा विचार कर चतुर हरिभक्त मुक्ति का अनादर करके भक्ति में लुभाये रहते हैं। भक्ति करते ही बिना यन और परिश्रम के संसार को जड़ अविद्या माया का नाश हो जाता है men भोजन करिय उप्ति हित लागी । जिमि सो असन पचवइ जठरागी । असि हरिभगति सुगम सुखदाई । को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥५॥ मोजन क्षधा की शान्ति के लिये किया जाता है, जैसे उसको जठराग्नि पचा देती है। ऐसी ही हरिमति सहज ही सुनदेनेवाली है, कौन ऐसा मूर्ख है जिसको वह न अच्छी लगेगी 11५॥