पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२०६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११२७ विचारने से फागभुशुण्डजी धोनों उपमाएं अपने ही पर घटाते हैं कि हठ रूपो विष अमृत दुमा और शत्रु यने हुए मुनि हितैषी हो गये, उससे अनुपम भलाई हुई ? यह भक्ति ही की महिमा है। रामभगति भनि उर बस जाके । दुख लवलेस न सपनेहुँ ताके ॥ चतुरसिरोमनि तेइ जग माहीं । जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥५॥ रामभक्ति रूपी मणिजिसके हदय में बसती है, उसको अपने में भी लवलेश मात्र दुःख नहीं होता । संसार में चतुर शिरोमणि वे ही हैं जो मणि के लिये सुन्दर यत्न करते हैं ॥५॥ सो मनि जदपि प्रगट जग अहई । राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई । सुगम उपाय पाइबे केरे । नर हतभाग्य देहि ममेरे ॥६॥ घहमणि यद्यपि जगत में प्रसिद्ध है, तथापि विना रामचन्द्रजी की कृपा कोई पाता नहीं। पाने का लहज उपाय है परन्तु भाग्यहीन मनुष्य पीछा दे देते हैं ॥६॥ भरभर-~-शब्द मुठभेर का विपर्यय है। मुठभेर सामने को कहते हैं और भटभेर पीछे पापका दे कर किसी वस्तु को पीछे हटाने का बोधक है। पावन पर्वत बेद पुराना । रामकथा रुचिराकर नाना॥ मर्मी सज्जन सुमति कुदारी । ज्ञान विराग नयन उरगारी ॥७॥ वेद और पुराण पवित्र पर्वत रूप हैं, उनमें नाना प्रकार की गंमकथा सुन्दर खानि अपिणी है। सज्जन लोग भेदियो हैं उनको सुन्दर बुद्धि कुधारी है, हे गरुड़जी ! ज्ञान और पैराग्य नेत्र हैं ॥७॥ मतिमरिण प्राप्त करने में मणि का लासोपान रूपक बाँधा गया है। मणि पर्वत की बानों में मिलती है, उसके पहचानने वाले भेदिया होते हैं जो लक्षणों से जान जाते हैं कि यहाँ मणि है । वह स्थान कुदाल से खोदवे हैं और मिरखते रहते हैं। भाव सहित खोजइ जो प्रानी । पाव भगतिमनि सब सुख खानी । मोरे मन प्रक्षु अस बिस्वासा । राम तँ अधिक राम कर दासा ॥८॥ जो प्राणी प्रीति के सहित खोजता है वह सब सुखों को खाति मतिमणि को पाता है। कागभुशण्डजी कहते हैं-हे स्वामिन् । मेरे मन में ऐसा विश्वास है कि रामचन्दजी के दास रामचन्द्रजी से बढ़ कर हैं ॥८॥ राम-सिन्धु-घन सज्जन धीरा । चन्दन तरुहरि सन्त समोरा । अब कर फल हरिभगति सुहाई । सो बिनु सन्त न काहू पाई HEL रामचन्द्रजी समुद्र कम है और धीरजवान सज्जन मेव रूप हैं, भगवान चन्दन के वृक्ष कार हैं और साधु पवन रूप है। सब का फल सुहावनी हरिभक्ति है, उसको विना सन्तों को कृपा के किसी ने नहीं पाई in