पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२०९

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रामचरित मानस । सन्त-उपमेय, सुर्जतरु-उपमान, सम-वाचक और अपनी खाल कढ़ा करादूसरों का कल्याण करना साधारण-धर्म 'पूपिमा अलंकार' है। सन इव खल पर बन्धन करई । खाल कढाइ बिपति सहि मरई ॥ खल बिनु स्वाय पर अपकारी । अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥६॥ सन की तरह दुष्टजन पराये का बन्धन करते हैं, यद्यपि अपनी खाल निकलवा कर विपत्ति सह कर मरते हैं । हे गरुडुजी ! सुनिये, लाँप और चूहा की तरह दुर्जन लोग बिना मतलज के दूसरों की हानि करते हैं ॥६॥ पर सम्पदा बिलालि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं। दुष्ट उदय जग आरत हेतू । जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥१०॥ पराये की सम्पत्ति नाश करके स्वयम् नष्ट हो जाते हैं, जैसे पाला और पथरा लेती का विनाश करके आप भी बिला जाते हैं। दुम्टो का उदय (उन्नति) जगत के दुःन का कारण है, जैसे अधम मह केतु (पच्छलतारा का उदय संसार के ममाल के लिये) विख्यात है ॥१०॥ सन्त उदय सन्तत सुखकारी । बिस्व सुखद जिमि इन्दुतमारी॥ परम प्रारम खुति बिदित अहिंसा । परनिन्दा सम अघ न गिरीसा ॥११॥ सन्तों का उदय (बढ़ती सदा सुखकारी है, जैसे सूर्य और चन्द्रमा का उदय संसार को सुखकारी है । घेद में विख्यात प्रत्युत्तम धर्म अहिंसा (जीवों की हत्या न करना) है और पराई निन्दा करने के समान कोई पाप का पहाड़ दूसरा नहीं है ॥११॥ यहाँ चौथे, पाँचवे और छठे प्रश्न का उत्तर समाप्त हुआ। पर निन्दको की जैसी गति होती है बीच में उसे कह कर तब आगे सातवें प्रश्न का उत्सर देगे। हरि गुरु निन्दा दादुर हाई । जनम सहस्र पाव तन साई ॥ द्विज निन्दक बहु नरक भाग करि । जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥१२॥ ईश्वर और गुरु की निन्दा करनेवाले मेढक होते हैं, वही. शगैर हज़ार जन्म पाते हैं। ब्राह्मण की निन्दा करनेवाला बहुत से नरकों को भोग कर संसार में कौए का शरीर धारण कर जन्म लेता है ॥१२॥ सुर खुति निन्दक जे अभिमानी । रौरव नरक परहिँ ते प्रानी ॥ होहिं उलूक सन्त निन्दा रत । माह निसा प्रिय ज्ञान भानु गत ॥१३॥ जो धमण्डी प्राणी देवता और वेद की निन्दा करते हैं वे रौरव नरक में पढ़ते हैं । सन्तों की निन्दा में लगे हुए उल्लू होते हैं, उन्हें अशान रूपिणी रात्रि प्यारी है और शान.रूपी सूब से विमुख रहते हैं ॥१३॥ .