पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। ११३ जानिय तब मन चिरुज गोसाँई । जब उर बल निराग' अधिकाई । सुमति छुधा बाढइ नित नई । विषय आस दुर्बलता गई ॥५॥ हे स्वामिन् ! मन को तब आरोग्य जानना चाहिये जब हदय में बेराग्य रूपी बल बढ़ता जाय । सुबुद्धि रूपी भूगर नित्य नवीन बढ़ने लगे और विषयों की इच्छा रूपी निर्वलता (नाता- कती) चली जाय ॥५॥ बिमल ज्ञान जल जब सो नहाई । तब रह रामगति उर छाई ॥ सिव अज सुक सनकादिक नारद । जे मुनि ब्रह्मविचार बिसारद ॥६॥ निर्मल मान रूपी जल जय वह (रोग मुफ तुम्ना मनुष्य) स्नान करता है, तब हृदय में राममक्ति (रूपी सीवनी मौषधि का प्रभाव) छाया रहता है। शिवजी, ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादिक और नारद आदि मुनि जो ग्रह के विचार में प्रवीण हैं ॥६॥ सय कर मत खगनायक एहा । करिय राम-पद पङ्कज नेहा । श्रुति पुरान सब अन्ध कहाहीं। रघुपतिभगति बिना सुख नाहीं ॥७॥ हे भगनाथ । यही सब का सिद्धान्त है कि रामचन्दजी के चरण-कमलों में स्नेह कीजि. ये । वेद पुरोण और लय सद्ग्रन्थ कहते हैं कि रघुनाथजी की भक्ति के यिना सुख नहीं है ॥७॥ कमठ पीठि जामहि बरु घारा । बन्ध्या-सुत बरु काहुहि मारा ॥ फूलहिँ नभ बरु बहुविधिफूला। जोव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥८॥ चाहे कछुए के पीठ पर बाल जम भावै और चाहे वाँझ का पुत्र किसी को मार डाले। चाहे आकाश में बहुन तरह के फूल फूलें, परन्तु रामचन्द्रजी से विमुख रह कर जीव सुख नहीं पा सकता II एषा जाइ बरु मृगजल पाना । बरु जामहि सस सीस बिषाना। अन्धकार बरु रबिहि नसावै । राम बिमुख न जीव चाहे मृगजल (मिथ्यापानी) के पीने से प्यास चली जावे और चाहे खरहा के सिर पर सोंग जम चाहे अन्धकार सूर्य को नष्ट कर दे, परन्तु रामविमुखी जीव मुख 'नहीं पाता 180 हिम से अनल प्रगद बरु हाई । बिमुख राम सुख पावन न कोई ॥१०॥ चाहे पाला से अग्नि प्रकट हो जाय परन्तु रामचन्द्रजी से प्रतिकूल रह कर कोई मुस नहीं पाता है ॥१०॥ पावै ॥॥ इस प्रकरण में रामविमुखी को सुख नहीं मिलता, इस बात की उत्कर्षता के लिये जो जओ हेतु कल्पित किये गये हैं वे उत्कर्ष के कारण नहीं हैं। चाहे वे असम्भव पूर्ण घटनायें हो जाय तो भी यह स्वयसिद्ध है कि हरिविमुखी प्राणी सुखी नहीं हो सकता 'प्रौढोक्ति अलंकार' है। सरदार कवि ने अपने मानसरहस्य में यहाँ मिध्याव्यवसित अलंकार माना