पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१३

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1 . ११३४ रामचरित-मानस। है परन्तु मिथ्याध्यवासित तो यह है जहाँ एक मिश्या को सत्य करने के लिये दूसरी मिश्या बात कही जाती है। जैसे-जो अाकाश के फूल का रस आँस्त्र में प्रक्षन करेगा वह साँप के । कान को देख सकता है । साकाश-पुष्प का रस मिथ्या वस्तु है उसके सम्बन्ध से सर्प के कान का मिध्यत्व निश्चय किया गया है। यहाँ मिथ्याध्यवसित सिद्ध नहीं होता है। दोबारि मथे घृत होइ बरु, सिकता त बरु तेल । बिनु हरिजन न भव तरिय,यह सिद्धान्त अपेल । चाहे पानी के मथने से धी उत्पन्न हो औराचाहे बालू से तेल निकल पावे, परन्तु यह अटल सिद्धान्त है कि बिना हरिभजन के कोई संसार-सांगर को पार नहीं कर सकता। मलकहि करइ चिरञ्जि प्रा, अजहि मसक तें हीन । अस बिचारि तजि संसय, रामहिं भजहिँ प्रबीन ॥ प्रभु रामचन्द्रजी मसा को वह्मा बना देते हैं और वहा को प्रसा से भी तुच्छ कर सकते हैं । ऐसा विचार कर चतुर प्राणी सन्देह को त्याग कर रामचन्द्रजी को भजते हैं। नगस्वरुपिणी-वृत। विनिश्चित वदामि ते न अन्यथा बचांसि मे । हरि नरामजन्तिजेऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ १२२ ॥ मैं भली भाँति निश्चय की हुई बात श्राप से कहता हूँ, मेरे वचन भूठे नहीं हैं । जो मनुष्य रामचन्द्रजी का मजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर संसार रूपी समुद्र को पार कर जाते हैं।१२२॥ चौ०-कहेउँ नाथ हरिचरित अनूपा । व्यास समास स्वमति अनुरूपा तुति सिद्धान्त-इहइ उरगारी। राम भजिय सब काम बिसारी ॥१॥ स्वामिन् ! मैंने अनुपम हरिचरित्र विस्तार मौर संक्षेप से अपनी बुद्धि के अनुसार कथन किया । हे गरुड़जी ! वेदों की निश्चय की हुई बात यही है कि सब कामों को भुला कर रामचन्द्रजी का मजन करना चाहिये ॥१॥ प्रभु रंघुपति तजि सेइय काही । मो से सठ पर ममता जाही । । तुम्ह विज्ञानरूप नहिं मोहा । नाथ कीन्ह मो पर तुम्ह छोहा ॥२॥ स्वामी रघुनाथजी को छोड़ कर किसकी सेवा करनी चाहिये, जिनकी मुझ से स्वं पर प्रीति है । हे नाथ ! आप विज्ञान रूप है; आप को मोह नहीं था.आपने.मुझ.पर बड़ी दया की (जो इतना कष्ट उठा कर मेरे श्राश्रम में आये) ॥२॥ कागभुशुण्डजी गरुड़ के सत्य मोह रूपी उपमेय को छिया कर दया रूपी उपमान का स्थापन कर कहते हैं कि श्राप माह वश मेरे समीप नहीं आये बरन मुझ पर दया करके आये 'शुद्धा पहुति अलंकार' है। ।