पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१६

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होते हैं new के चरण-कमलों में प्रीति उत्पन्न होती है ॥ तीर्थाटन साधन समुदाई । जोग बिराग ज्ञान निपुनाई ॥२॥ सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। ११३७ सन्त हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह पै कहइ न जाना । निज परिताप दवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिँ सन्त सुपुनीता ॥४॥ सन्तों का उदय कवियों ने नवनीत के समान कोमल कहा, पर करने नहीं जाना, क्योंकि मक्खन अपनी आँब से पिघलता है और सुन्दर पवित्र सन्तजन दूसरों के तुःख ले द्रवीभूत सन्तों का एदय उपमेय और नवनीत अपमान है। उपमान की अपेक्षा उपमेय में अधिक गुण कह कर उसकी हीनता दिखाना व्यतिरेक अलंकार' है। जीवन जनम सुफल मम भयऊ । तव प्रसाद सच संखय गयऊ । जानेहु सदा मोहि निज किङ्कर । पुनि पुनि उमा कहइ बिहङ्ग बर ॥५॥ मेरा जीवन और जन्म सफल हुना, आप की कृपा से सब संसय माता रहा। शिवजी कहते हैं-ई उमा! चार धार पक्षिश्रेष्ठ गरजी कहते हैं कि मुझे सदा अपना दास जान कर (रुपा बनाये रहना) ॥५॥ दो-तासु चरन सिर नाइ करि, प्रेम सहित मतिधीर । गयउ गरुड़ बैकुंठ तब, हृदय राखि रघुबीर ॥ धोरवुद्धि गयड्जी प्रेम के सहित कागभुशुण्ड के चरणों में सिर नवा कर और रघुनाथजी केप को हदय में रख कर तब बैकुंठ को गये । गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन। बिनु हरि कृपा न होइसो, मावहि बेद पुरान ॥१२॥ शिवजी फहते है-हे गिरिजा सन्तों के सम्मिलन के समान लाभ दूसरा कुछ नहीं है। यह बिना रामचन्द्रजी की कृपा के नहीं होता, वेद और पुराण ऐसा कहते हैं ॥१२॥ चौ०-कहउँ परम पुनीत इतिहासा । सुनत सवन छूटहिँ भव पासा ॥ प्रनत कलपतरु करुना पुजा । उपजइ प्रीति रोम-पद कञ्जा ॥१॥ मैंने यह अत्यन्त पावन इतिहास (कागभुशुण्ड और गरुड सम्बाद) कहा, जिसके सुनने से संसार का बन्धन छूट जाता है । शरणागतों के कल्पवृक्ष रूप, दया के राशि रामचन्द्रजी केवल इस इतिहास को कान से सुनने पर अलभ्य लाभ होना वर्णन कि संसार शन्धन छूट जाता है, द्वितीय विशेष अलंकार' है। मन बच करम जनित अघ जाई । सुनहिँ जे कथा खवन मन लाई । मन, वचन और कर्म से उत्पन्न पाप नष्ट हो जाता है जो मन लगा कर इस कथा को कान से सुनते हैं। तीर्थ यात्रा, शुभ साधनों के समूह, योग, वैराग, शान को निपुणता ॥२॥