पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२१८

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११३८ सेो धन धन्य प्रथम गति जाकी । धन्य पुन्यरत मति सोइ पाकी । धन्य धगे सेइ जर सतसङ्गा । धन्य जनम दिन भगनि अङ्गा || वह धन धाप है जिसकी प्रथम गति है और वह बुद्धि धन्य है जो पवित्र पुण्य में लगो रहनी है । वह घड़ी धन्य है जय सन्सार हो और उसका जन्म धन्य है जिसकी बामणों में सभा भकि हो । दान, भोग और नाश धन की यही तीन गति है ॥४॥ दो०-सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत । श्रीरघुबीर परोयन, जेहि नर उपज विनीत ॥१२॥ शिवजी कहते है-हे उमा ! सुनो, वह कुन धन्य है; जगत को पूजनीय और अतिशय पवित्र है, जिस कुल में रघुनाथजी में लवलीन नन मनुष्य उत्पन्न होते हैं ॥१७॥ चौo-मत्ति अनुरूप कथा मैं भाखी । जवपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥ तव मन प्रोति देखि अधिकाई । तब म रघुपत्ति कथा सुनाई ॥१॥ अपनी बुद्धि के पनुसार मैं ने कथा कही, यद्यपि पहले गुप्त कर रफ्नो थी। तुम्हारे मन मैं भधिक प्रीति देख कर तब मैं ने रघुनाथजी की कथा सुनाई है ॥१॥ यह न कहिय सठहो हठसीलहि । जो मन लाइ न सुन हरिलोलहि । कहिय न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि । जो न मजइस चरावर स्वामिहि ॥२॥ यह दुष्ट और उशील (दुराग्रहियों) से न कहनी चाहिये जो मन लगा कर भगवान की लीला को नहीं सुनते । लामी से, क्रोधी से और कामी पुरुषों से न कहनी चाहिये जो जड़ चेतन के स्वामी रामचन्द्रजी को नहीं मानते ॥२॥ सभा की प्रति में यह न कही जे सठहटसोलह पाठ है। द्विज द्रोहिहि न सुनाइय कबहूँ । सुरपति सरिस होइ हप जनहूँ । रामकथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह के सतसङ्गति अति प्यारी ॥३॥ विप्र-द्रोही इन्द्र के समान राजा हो जब भी उसको कभी न सुनना चाहिये । रामकथा को भवरण करने के वे ही अधिकारी हैं जिनको सन्ों की सङ्गानि अत्यन्त प्यारी है ॥३॥ सभा की प्रति में सुरपति सरिस होइ प तबहू' पाठ है। गुरु पद प्रीति नीति रत जेई । द्विज-सेवक अधिकारी तेई । ताकह यह बिसेष सुखदाई । जाहि प्रान प्रिय श्रीरघुराई wer जो गुरु के चरणों में प्रीति रखते हैं, नीति में तत्पर और ब्राह्मणों के सेवक हैं वे ही इस कथा के अधिकारी हैं। जिनको श्रीरघुनाथजी प्राण के समान प्यारे हैं उनको यह बहुत हा सुखदायक होगी | दो-राम-चरन-रति जो वहइ, अथवा पद निर्यान । भाव सहित सो यह कथा, करउ खत्रन पुट पाल १२८॥ जो रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम चाहले अथषा मोक्ष-पद पाने की इच्छा रखते हो, वे स्नेह के सहित यह कथा (रूपी अमृत रस) कान रूपी दोनों में भर कर पान कर ॥१९॥ .