पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१२२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ७१ शिवजी का चिन्ता से मनोभा होना कि क्या करूँ, क्या न करूँ 'विषादसवारी भाव' है । जिनको मैं अपनी इष्टदेवी मानता हूँ, उनका रूप लेकर सती ने महान अनर्थ किया, अब इनसे स्त्री-भाव की प्रीति करने से भक्ति-मार्ग नष्ट होगा 'वितर्क सञ्चारीभाव' है। दो०-परम-प्रेम तजि जाइ नहि, किये प्रेल बड़ पाप । प्रगटि न कहत सहेस कछु, हृदय अधिक सन्ताप ॥ ५६ ॥ (सती के प्रति ) अतिशय प्रीति छोड़ी नहीं जा सकती और प्रेम करने में बड़ा पाप है। शिवजी प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं कहते हैं, पर उनके हृदय में बहुत ही दुःख है ॥५६॥ "परम-प्रेम' शब्द के दो अर्थ हैं। पहला सती के प्रति और दूसरा भक्ति के प्रति, अर्थात् भक्ति परम प्यारी है वह छोड़ी नहीं जा सकती और सती से प्रेम करने में बड़ा पाप है, इस तरह यह 'श्लेष अलकार' है। सभा की प्रति में 'परम पुनीत न जाइ तजि' पाठ है। चौक- तब सङ्कर प्रमु-पद सिर नावा । सुमिरत राम हृदय अस आवा ।। एहि तन सतिहि भैंट मोहि नाहौँ । सिव सङ्कल्प कीन्ह मन माहीं ॥१॥ तय शङ्करजी ने स्वामी के चरणों में मस्तक नवाया और रामचन्द्रजी का स्मरण करते ही ऐसा मन में पाया कि सती के इस शरीर से सुझ ले भेट नहीं, शिवजी ने मन में ऐसी प्रतिज्ञा कर ली॥१॥ अस बिचारि सङ्कर मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥ चलत गगन भइ. गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दिढ़ाई ॥२॥ मंतिधीर शङ्करजी ऐसा विचार कर रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने स्थान को चले । चलते समय सुन्दर आकाश-वाणी हुई कि, हे महेश ! तुम्हारी जय हो, आप ने अच्छी भक्ति की उढ़ता की अर्थात् भक्ति की रक्षा के लिए सती का त्याग कर दिया ! ॥२॥ अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । राम भगत समरथ भगवाना ॥ सुनि नभ-गिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि. संमेत सकोचा ॥३॥ ऐसी प्रतिज्ञा श्राप के बिना दूसरा कौन कर सकता है ? आप रामभक्त, समर्थ और भग- वान हैं । श्राकाश-बाणी को सुन कर सती के हृदय में सोच हुना, उन्होंने लजाते हुए शिवजी से पूछा ।। कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्य-धाम प्रभु दोनदयाला ॥ जदपि सती पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर-आराती ॥ ४ ॥ हे कृपालु दीनदयालु स्वामिन् ! श्राप सत्य के स्थान है-कहिए, कौन सी प्रतिज्ञा की है। यद्यपि सती ने बहुत तरह से पूछा, तथापि त्रिपुर दैत्य के शन ने नहीं कहा ॥४॥ 'त्रिपुर-बारातो, शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि जो कठिन दुर्जय त्रिपुर जैसे दैत्य के बैरी हैं, वे,अपराधिनी सती की प्रार्थना पर कैसे दयालु हो सकते हैं ?