पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१४५

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रामचरित मानस । तेहि तप कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव.समाधि बैठे सब त्यागी। जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥२॥ उसने तप किया है कि शिवजी पति मिले, इधर शङ्करजी सब त्याग कर समाधि लगाये बैठे हैं । यद्यपि बड़ा अण्डस है, तथापि हमारी एक बात सुनो ॥२॥ पठवहु काम जाइ सिव पाहौँ । करइ छभि सङ्कर मन माहीं । तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब विवाह बरिआई ॥ ३ कामदेव को भेजो वह शिवजी के पास जा कर शङ्कर के मन में क्षोभ उत्पन्न करे, तव हम जाकर शिवजी को मस्तक नवा पल-पूर्वक विवाह करावगे ॥३॥ एहि विधि भलेहि देव हित हाई । मत अति नीक कहइ सब कोई ॥ अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति-हेतू । प्रगटेउ विषमबान झखकेतू ॥ ४ ॥ इस तरह भले ही देवताओं का कल्याण होगा, सय कोई कहने लगे यह सम्मति बहुत अच्छी है । देवताओं ने अत्यन्त करणा से कामदेव की स्तुति की, तब पञ्चबाणधारी मछली के चिह्न युक्त ध्वजावाला मनोज प्रकट हुआ ren दो-सुरन्ह कही निज धिपति सब, सनि मन कीन्ह बिचार । सम्भु बिरोध न कुसल माहि, बिहँसि कहेउ अस मार ॥३॥ देवताओं ने सब अपनी विपत्तियाँ कहीं, यह सुन कर कामदेव ने मन में विचार किया और हस कर ऐसा कहा कि शिवजी के से वैर मेरा कल्याण नहीं है ॥३॥ कामदेव के हँसने में व्यसनामूलक गूहव्यङ्ग है कि स्वार्थी देवता अपनी भलाई के आगे मेरे सर्वनाश का तनिक भी विचार नहीं करते हैं ! चौ०-तदपि करब मैं काज तुम्हारा । स्रुति कह परम-धरम-उपकारा । परहिन लागि तजइ जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहि तेही । ॥१॥'. तो भी मैं आप लोगों का कार्य करूंगा, श्रुतियाँ कहती हैं कि परोपकार सब से यद कर धर्म है। दूसरे की भलाई के लिए जो शरीर तजता है, सज्जन लोग उसकी सदा बड़ाई करते हैं ॥१॥ अस कहि चलेउ सबहि सिर नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥ चलत मार अस हृदय बिचारा । सिव-बिरोध ध्रुव मरन हमारा ॥२॥ ऐसा कह सब को सिर नवा कर अपनी सहायक सेना के सहित हाथ में फूल का धनुष घोण लेकर चलो। चलती र कामदेव ने मन में यह सोचा कि शिवजी से विरोध करने पर हमारा भरण अवश्यम्भावी है ( निश्चय मृत्यु होगी ) ॥२॥ आखिर मरना तो हई है, तब अपना प्रभाव संसार को दिखा दूं कि मैं कैसा पुरुषार्थी 1 हु गर्ष और मद सारी भाव' है।