पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१४७

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रामचरित मानस जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन्ह करनी ॥ पसु पच्छी नभ-जल-थल-चारी । भये काम-बस समय-विसारी ॥२॥ जहाँ जड़ों की ऐसी दशा वर्णन की गई, वहाँ चेतनों की फरनी कौन कह सकता है ? पशु, पक्षी, आकाश, पानी और स्थलचारी जीव समय भुला कर सब काम के वश हो गये ॥२॥ जब जड़ों की ऐसी दशा हुई तब चेतनों की कौन कहे ? वे तो काम के सदा वशवर्ती चाकर हैं 'काव्यार्थापत्ति अलंकार है। मदन भन्ध ब्याकुल सब लोको । निसि दिन नहिँ अवलोकहि कोका ॥ देव दनुज नर किन्नर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत वेताला ॥३॥ सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हुए हैं, कोई दिन रात (समय कुसमय) नहीं देखता कि क्या है ? देवता, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, नाग, प्रेत, पिशाच, भूत और वेताल ॥३॥ 'कोका' शब्द का चकवा पक्षी अर्थ किया जाता है कि चकवा चकवो दिन रात नहीं देखते हैं । कामदेव ने यह लब खेल दो दण्ड (४८ मिनट) में किया। इतने अल्प समय में दिन रात का होना असम्भव है । वन्दन पाठक ने अपनी शङ्कावली में लिखा है कि एक दण्ड रात थी और एक दण्ड दिन । पर यह वाग्विलास के सिवा कोई प्रमाणिक बात नहीं है। इन्ह की दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस अये वियोगी ॥४॥ इनकी दशा इसलिये बखान कर नहीं कहा कि इनको सदा कामदेव का दास समझना चाहिए । सिद्ध, वैराग्यवान , महामुनि और योगी-जन भी काम के अधीन होकर वियोगी हो गये अर्थात् स्त्री-विरह के दुःख से दुखी हुए ॥४॥ हरिगीतका-छन्द। भये काम-बस जोगीस तापस, पावरनि को को कहै । देखहिँ चराचर नारि मय जे, ब्रह्म-मय देखत रहै ॥ अबला बिलोकहिँ पुरुष-मय-जग, पुरुष सब अबला-मयं । दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर, काम कृत कौतुक अयं ॥४॥ जब योगेश्वर और तपस्वी काम के बश हो गये, तव अधों की कौन कहे ? जो चराधर को ब्रह्ममय देखते थे। वे उसको स्त्री मय देख रहे हैं ! स्त्रियाँ सम्पूर्ण जगत् को पुरुष-मय देखती है और पुरुष स्त्री मय देखते हैं। दो घडी के भीतर ब्रह्माण्ड भर में कामदेव ने यह तमाशा किया था इस प्रकरण में लता, वृक्ष,नदी, तालाब, पशु, पक्षी, मुनि, योगी और विरक्तादि का अनुचित प्रेम-वर्णन 'शृङ्गाररसाभास' है। ।