पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१५२

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1 प्रथम सोपान, बालकाण्डं । हरिगीतिका-छन्द। जोगी अकंटक भये पति-गति, सुनत रति मुरछित भई । रोदति बदति बहु भाँति करुना, करति सङ्कर पहि गई। अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि, जोरि कर सनमुख रही। प्रभु आसुतोष कृपाल सिव, अबला निरखि बोले सही ॥६॥ योगी निकण्टक हुए और रति अपने पति की दशा सुन कर मूर्छित हो गई । रोती बिल्लाती बहुत तरह विलाप करती हुई शङ्करजी के पास गई । अत्यन्त प्रेम से विविध प्रकार बिननी करके हाथ जोड़ कर सामने खड़ी रही। प्रभु शिवजी कृपा के स्थान शीघ्र प्रसन्न होने- वाले स्त्री को देख सत्य वचन बोले ॥६॥ दो--अब तँ रति तव नाथ कर, होइहि नाम . अनङ्ग। बिनु बपु व्यापिहि सबहि पुनि, सुनु निज मिलन प्रसङ्ग ८७॥ हे रति ! अब से तेरे स्वामी का नाम अनङ्ग होगा। वह विना शरीर के सभी को व्यापेगा, फिरत अपने मिलने की बात सुन 15७॥ चौ०--जन जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महि भारा ॥ कृष्न-तनय होइहि पति तोरा । बचन अन्यथा होइन मारा ॥१॥ पृथ्वी के भारी बोझ को हटाने के लिए जब यदुकुल में श्रीकृष्णचन्द्र का जन्म होगा, तव तेरा स्वामी कृष्णचन्द्र का पुत्र ( प्रद्युम्न ) होकर अवतरेगा । यह मेरी बात झूठ न होगी। इस समय सशरीर वह तुझ से मिलेगा ॥१॥ रति गवनी सुनि सङ्कर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥ देवन्ह समाचार पाये । ब्रह्मादिक बैकट सिधाये ॥२॥ शङ्करजी की बात सुन कर रति चली गई । अब दूसरी कथा वर्णन कर कहता हूँ। ये सब समाचार ( रति को वर पाने की कथा ) देवताओं को मालूम होने पर ब्रह्मा आदि सब देवता वैकुण्ठ को गये ॥२॥ सब सुर बिष्नु बिरजि समेता । गये जहाँ सिव कृपा-निकेता ॥ पृथक पृथक तिन्ह कीन्ह प्रसंसा । भये प्रसन्न चन्द्र-अवतंसा ॥३॥ विष्णु और ब्रह्मा के सहित सब देवता जहाँ कृपा के स्थान शिवजी थे, वहाँ गये। उन्होंने अलग अलग स्तुति की, जिससे चन्द्रशेखर भगवान् प्रसन्न हुए ॥३॥ 2