पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१६६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । हरिगीतिका-छन्द। दाइज दिया बहु भाँति पुनि कर,-जोरि हिम-भूधर कह्यो । का देउँ पूरनकाम सङ्कर, चरन-पङ्कज गहि रह्यो । सिव कृपासागर ससुर का सन्तोष सब भाँतिहि किया। पुनि गहे पद-पाथोज मैना, प्रेम परिपूरन हियो ॥१५॥ बहुत तरह का दहेज देकर फिर हिमवान् ने हाथ जोड़ कर कहा-हे शङ्करजी ! श्राप पूर्णकाम हैं, मैं आप को क्या दे सकता हूँ। यह कह कर उन्हाने चरण कमला को पकड़ लिया। कृपासागर शिवजी ने सभी प्रकार से श्वसुर को सन्तुष्ट किया, प्रेम-पूर्व हृदय से मैना ने चरण कमलों को पकड़ा ॥१५॥ दो-नाथ उमा मम प्रान प्रिय, गृह-किङ्करी करेहु छमेहु सकल अपराध अब, हाइ प्रसन्न बर देहु ॥१०॥ मैना विनती करने लगी-हे नाथ | उमा मुझे प्राण के समान प्यारी है, इसे घर की दासी बनाइये । सम्पूर्ण अपराध क्षमा कीजिएगा, अब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए ॥१०१॥ गृह किङ्करी करेहु इस वाक्य में सुन्दर गुणीभूत व्यङ्ग है कि अब तक आप बिना घर के रहते थे, अब घर बना कर रहनो, यह व्यङ्ग वाच्यार्थ ही से प्रगट है। चौ०--बहु बिधि सम्भु सास समुझाई । गवनी भवन चरन सिर नाई। जननी उमा बोलि तब लीन्ही । लेइ उछङ्ग सुन्दरसिख दीन्हो॥१॥ वहुत तरह से शिवजी ने सास को समझाया, वे चरणों में मस्तक नवा कर घर गई। तब माता ने पार्वतीजी को बुला लिया और गोद में लेकर सुन्दर सीख दो ॥१॥ करेहु । सदा सङ्कर-पद-पूजा । नारि धरम पति-देव न दूजा । बचन कहत भरि लोचन बारी । बहुरि लाइ उरलीन्हि कुमारी ॥२॥ शङ्करजी के चरणों की सदा पूजा करना, स्त्री-धर्म पतिव्रता के सिवा दूसरा नहीं है । वचन कहते हुए आँखों में जल भर कर फिर पुत्री को हृदय से लगा लिया ॥२॥ कत बिधि सृजी नारि जग माहौँ। पराधीन सपनेहुँ सुख माहीं । भइ अति प्रेम बिकल महतारी। धीरज कीन्ह कुसमय बिचारी॥३॥- कहने लगी-विधाता ने संसार में स्त्रियों को क्यों उत्पन्न किया, जिन्हें पराधीन रहने के कारण कभी स्वप्न में सुख नहीं है । अत्यन्त प्रेम से माता व्याकुल हुई, कुसमय विचार कर. धीरज धारण किया ॥३॥ १५