पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रातचरित मानस । १२६६ बातुल भूत-बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिँ बचन विचारे । जिन्ह कृत महा-मोह-मद पाना । तिन्ह कर कहा करिय नहिँ काना nen जो बकवाली प्रेत के अधीन होकर मतवाले हुए हैं वे विचार कर वचन नहीं योलते । जिन्होंने महामोह रूपी मदिरा का पान किया है, उनके (भव्याभव्य) कहने पर कान न करना चाहिए ॥४॥ चाक्यार्थ में असत् की एकता 'प्रथम निदर्शना अलंकार' है। सोय-अस निज हृदय बिचारि, तजु संसय भजु राम-पद । सुनु गिरिराज-कुमारि, भ्रम-तम रबि-कर-वचन-मम ॥११५॥ ऐसा अपने मन में विचार कर सन्देह त्याग दो और रामचन्द्रजी के चरणों को भजो है पर्वतराज की कन्या ! सुनो, भ्रमरूपी अन्धकार के लिए मेरे वचन सूर्य के किरण रूप हैं ॥ ११५॥ चौ०-सगुनहि अगुनहिँ नहिँ कछु भेदा । गावहिँ मुनि पुरान बुध बेदा । अगुन अरूप अलख अज जोई । भगत-प्रेम-बस सगुन सा होई॥१॥ सगुण में और निर्गुण में कुछ भेद नहीं है, मुनि, पुराण, पण्डित और वेद ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, बिना रूप का, अप्रत्यक्ष और अजन्मा है. वही भक्तों की प्रीति के वश सगुण होता है॥१॥ जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे । जल-हिम-उपल बिलग नहिं जैसे ॥ जासु नाम भ्रम-तिमिर-पतङ्गा । तेहि किमि कहिय बिमाह प्रसङ्गा ॥२॥ जो निर्गुण है वह कैसे सगुण होता है जैसे पानी, पाला और श्रोला भिन्न नहीं है। जिनका नाम भ्रमरूपी अन्धकार के लिए सूर्य है, उनके विषय में मोह (अचान) की बाते कैसे कही जा सकती हैं १ ॥२॥ जो निर्गुण है वह सगुण होता है। इस साधारण वात की विशेष से समता दिखाना कि जैसे पानी से पाला और बिनौरी पृथक नहीं, कारण से रूपान्तर हो जाते हैं 'उदाहरण अलंकार' है। राम सच्चिदानन्द दिनेसा । नहिं तहँ मोह-निसा-लवलेसा ॥ सहज प्रकास-रूप भगवाना । नहिं तहँ पुनि बिज्ञान बिहाना ॥३॥ रामचन्द्रजी परब्रह्म सूर्य रूप हैं, वहाँ अहान रूपी रात्रि का लेशमात्र भी नहीं है। भगवान् सहज ही प्रकाश रूप हैं, फिर वहाँ तो जान का सबेरा होता ही नहीं (सदा मध्याह- काल बना रहता है)॥३॥ जैसे सूर्य के समीप रात्रि नहीं जा सकती, वैसे ही रामचन्द्रजी के निकट मोह का पवार नहीं हो सकता। ।