पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९८

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। प्रथम सोपान, बालकाण्ड । धरि नृप तनु तहँ गयउ कृपाला । कुँअरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥ दुलहिनि लेइ गये लच्छिनिवासा । नृप-समाज सब भयउ निरासा ॥२॥ कृपालु भगवान् राजा का शरीर धारण कर वहाँ गये, फुचरि ने प्रसन्न हो कर उन्हें जयमाल पहना दी। दुलहिन लक्ष्मीनिवास (विष्णु) ले गये, सब राज-समाज निराश हो गया ॥२॥ मुनि अति बिकल माह मति नाँठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥ तब हर-गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥३॥ मुनि की युद्धि अज्ञान से नष्ट हो गई । वे अत्यन्त व्याकुल हुए, ऐसे मालुम होते हैं मानो गाँठ छूट कर मणि गिर गई हो । तर हर-गण मुस्कुराकर बाले-ज़रा अपना मुंह तो जा कर माइने में देखिए ॥३॥ मूल्यवान रत्न के गिरने से व्याकुलता होती ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। अस कहि दोउ भागे भय भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी। चेष बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा un ऐसा कह कर दोनों भारी भय से भगे और मुनि ने जल में निहार कर अपना मुख देखा । रूप देख कर बड़ा क्रोध बढ़ा, उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप दिया ॥४॥ दो०-हाहु निसाचर जाइ तुम्ह, कपटी पापी दोउ। हँसेहु हमहि सो लेहु फल, बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥१३॥ अरे कपटी पापियो! तुम दोने जा कर राक्षस हो। हमें हँसे हो उसका फल लेश्रो, फिर किसी मुनि की हँसी करना ॥ १३५ ॥ फिर किसी मुनि की हसी करना, इस वाक्य में मुनि का उपहास करना बेल नहां, काकु से वर्जन ब्यजित होना व्यङ्ग है,। चौ०-पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदय सन्तोष न आवा ॥ फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं ॥१॥ फिर पानी में देखा तो अपना रूप पाया, तो भी हदय में सन्तोष न पाया । मन में क्रोध हुआ, ओठ फड़कने लगे, तुरन्त कमलाकान्त के पास चले ॥१॥ देइहउँ साप कि मरिहउँ जाई । जगत मेरि उपहास कराई। बीचहि पन्ध मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ रोजकुमारी ॥२॥ शाप दूंगा या कि मर जाऊँगा, संसार में उन्होंने मेरी हँसी कराई है। दैत्यारि भगवान् बीच रास्ते ही में मिले, उनके साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी है ॥२॥