पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सुन्दर केकिहि प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १६५ सो०-तुलसी देखि सुबेखु, भूलहिं मूढ़ न चतुर नर । पेखु, बचन सुधा-सम असन-अहि ॥११॥ तुलसीदासजी कहते हैं-सुन्दर वेश देख कर चतुर मनुष्य जो मूर्ख नहीं हैं वे भी भूल जाते हैं ! सुन्दर मुरैले को देखो, बोली अमृत के समान और भोजन सर्प का (उसकी बोली पर मूख और चतुर सभी मनुष्य मोहित हो जाते हैं)॥ १६१ ॥ यदि इस सोरठे के दूसरे चरण का यों अर्थ किया जाय कि-"मूख भूल जाते हैं। किन्तु चतुर मनुष्य नहीं भूलते" तो शङ्का उत्पन्न होती है कि राजा भानुप्रताप परम चतुर थे, मूर्ख नहीं, फिर वे क्यों भूले ? यदि यह कहा जाय कि मूर्ख नहीं भूलते चतुर नर ही भूलते हैं, तो यह अर्थ नहीं अनर्थ होगा। चौ०-ता तें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥ प्रभु जानत सब बिनहिँ जनाये । कहहु कवन सिधि लोक रिझाये ॥१॥ मैं इसी से संसार में छिपा रहता हूँ, भगवान् शो छोड़ अन्य से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। बिना जनाये ही प्रभु सब जानते हैं, फिर कहिए ? लोगों को रिझाने से कौन सी सिद्धि हो सकती है ॥१॥ तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मारे । प्रीति प्रतीति मोहि पर तारे ॥ अब जौं तात दुरावउँ ताही । दारुन दोष घटइ अति माही ॥२॥ तुम निश्छल सुबुद्धिवाले मेरे अतिशय प्रिय हो, मुझ पर तुम्हारी प्रीति और विश्वास है। हे तात ! अब यदि तुम से छिपाता हूँ तो मुझे बड़ा भीषण दोष लगता है ॥२॥ अपना कार्य सिद्ध करने के लिए कपट-मुनि का छल से राजा पर प्रेम दिखाना राजा विषयक रति का भावाभास है। जिमि जिमि तापस कथइ उदासा। तिमि तिम नृपहि उपज विस्वासा देखा स्वबस करम-मन-बानी । तब बोला तापस बगध्यानी ॥३॥ जैसे जैसे वह तपस्वी वैराग्य कहता है, तैसे तैसे राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता है। जब कम, मन और वचन से राजा को अपने अधीन में देखा, तब बगुला के समान ध्यान लगानेवाला तपस्वी बोला ॥ नाम हमार एकतनु भाई । सुनि नृप बोलेउ पुनि सिर नाई। कहहु नाम कर अरथ बखानी । मेहि सेवक अति आपन जानो ॥४॥ हे भाई ! हमारा नाम एकतनु है, यह सुन कर राजा शिर नवाकर फिर बोले-स्वामिन् ! मुझे अपना अत्यन्त सेवक जान कर नामका अर्थ बखान कर कहिए ॥४॥