पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२२१

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। १६६ रामचरित मानसं । दो-आदि सृष्टि उपजी जबहि, तब उतपति भइ मारि नाम एकतनु हेतु तेहि, देह न धरी बहोरि ॥१२॥ कपटी मुनि बोला-श्रादि में जब सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, तब मेरी पैदाइश हुई। एकतनु नाम इस कारण है कि मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की ॥१२॥ नाम के अर्थको अनोखी युक्ति से समर्थन करना 'काव्यालिङ्ग मलंकार है। चौ-जनि आचरज करहु मन माहीं। सुत तप तैं दुर्लभ कछु नाहीं ॥. तप बल तैं जग सूजइ विधाता । तप बल बिष्नु भये परित्राता ॥१॥ हे पुत्र ! मनमै आश्चर्य मत करो, तपस्या से कुछ अगम नहीं है। देशो-तपस्या ही के बल ब्रह्मा जगत की रचना करते हैं और तप के ही बल से विष्णु पालन करनेवाले हुए हैं ॥१॥ एकतनु का अर्थ सुन कर राजा अाश्चर्यान्वित हुए और विचारने लगे कि सृष्टि के आदि में इस नाम का उल्लेख वेद-शास्त्रां में तो नहीं है ? वह छली मुनि राजा के भीतरी भाव को ताड़ गया, फिर विश्वास दृढ़ करने योग्य बातें कहना 'पिहित अलंकार' है तप बल सम्भु करहिँ सङ्घारा । तप तैं अगम न कछु संसारा॥ भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहइ सेा लागा ॥२॥ तपस्या ही के बल रुद्र संहार करते हैं। तप से संसार में कुछ भी दुर्गम नहीं है। यह सुन कर राजा को बड़ा प्रेम हुआ, फिर वह पुरानी कथाएँ कहने लगा ॥२॥ धरम करम इतिहास अनेका । करइ निरूपन बिरति बियेका ॥ उदभव-पावन-प्रलय कहानी । कहेसि अमित आचरज बखानी ॥३॥ नाना प्रकार के धर्म और कर्मों के इतिहास तथा ज्ञान वैराग्य का वर्णन किया । उत्पत्ति, पालन और प्रलय की बहुत ही अचरजभरी कहानियाँ उसने बस्नान कर कहीं ॥३॥ सुनि महीस तापस बस भयऊ । आपन नाम कहन तब लयऊ ॥ कह तापस नृप जानउँ ताही । कीन्हेहु कपट लाग अल माही ॥४॥ सुन कर रोजा तपस्वी के वश में हो गये, तब अपना नाम कहने के लिये उत्सुक हुए । तपस्वी ने कहा-राजन् मैं तुझे जानता हूँ, तुमने जो छिपाव किया वह मुझे बहुत अच्छा लगा ॥४॥ राजा अपना नाम कहने नहीं पाये कि वीच में बात काट कर अपनी योग्यता दिखाते हुए तपस्वी का बोल उठना पिहित अलंकार की ध्वनि है। सो०-सुनु महीस असि नीति, जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप माहि ताहि पर अति प्रीति, सोइ चतुरता बिचारि तव ॥१६३॥ हे राजन् ! सुनो ऐसी नीति है कि राजा जहाँ तहाँ अपना नाम नहीं कहते । तुम्हारी वही चतुराई विचार कर (कि नीतिज्ञ हो) तुझ पर मेरी अत्यन्त प्रीति हुई ॥१६३।।