पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दो-निज लोकहि बिरच्चि गे, देवन्ह इहइ सिखाइ। बानर-तनु धरि धरि महि, हरि-पद सेवहु जांइ ॥१८॥ ब्रह्माजी सब देवताओं को यह सिखा कर कि तुम लोग पृथ्वी पर जा कर वानर की देह घर धर कर भगवान के चरण की उपासना करो और आप ब्रह्मलोक को चले गये ॥१॥ शक्का-पूर्व में कह आये हैं कि देवता, मुनि, सिद्धादि और पृथ्वी सब मिल कर ब्रह्मा के लोक में गये और अपना अपना दुःख निवेदन किया । ब्रह्मा ने पुलकित शरीर से वहीं भग- वान् की स्तुति की, आकाशवाणी हुई पर कहीं कोई गये नहीं। फिर ब्रह्माजी को अपने लोक में जाना क्यों कहा गया, वे तो अपने ही लोक में थे? उत्तर-यहाँ भी वही कल्प भेद है। जिस कल्प में क्षीरसागर के किनारे या वैकुण्ठधाम मैं जा कर स्तुति की थी, उस कल्प में अपने लोक को जाना कहते हैं। चौ०-गये देव सब निज निज धामा। भूमि सहित. मन कहँ बिस्रामा । जो कछु आयसु ब्रह्मा दीन्हा । हरष देव बिलम्ब न कीन्हा ॥१॥ सब देवता धरती के समेत मन में विश्राम पा कर अपने अपने लोक को गये । जो कुछ ब्रह्माजी ने श्राशा दी उसमें देर नहीं की देवतागण ने प्रसन्नता से॥१॥ बनचर देइ धरी छिति माहीं। अतुलित बल-प्रताप तिन्ह पाहीं । गिरि-तरु-नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहि मतिधीरा ॥२॥ पृथ्वी पर वानर की देह धारण किया, उनमें बेप्रमाण बल और प्रताप था, पर्वत, वृक्ष और नख ही जिनके हथियार हैं, सब शूरवीर मतिधीर भगवान् के ( आगमन का) भाग निहारते हैं ॥२॥ गिरि कानन जहँ तहँ महि पूरी । रहे निज निज अनीक रुचिरूरी। यह सब रुचिर चरित मैं भाखा। अब सा सुनहु जो बीचहि राखा ॥३॥ पर्वत, वन और पृथ्वी जहाँ तहाँ अपनी अपनी इच्छानुसार सुन्दर टोली बना कर भरे पड़े हैं। ये सब शोभन चरित्र मैं ने कहे, अब वह सुनो जो बीच ही में रख छोड़ा है ॥३॥ १२० वे दोहे के अन्तर्गत कहा कि-"सुनहु राम अवतार, चरित परम सुन्दर अनध" पर कहने लगे जय, विजय, जलन्धर श्रादि रावण के जन्म को कथा, मनु शतरूपा की तपस्या, भानु प्रताप के शाप की कथा रावण जन्म और दिग्विजय श्रादि । इस लिए यहाँ कहते हैं कि राम अवतार कहने को कह कर जो बीच में छोड़ रक्खा है, अब उसको सुनिए । अवधपुरी रघुकुल-मनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊ ।। धरम-धुरन्धर गुन-निधि ज्ञानी । हृदय भगति मति सारंग-पानी ॥en अयोध्यापुरी के राजा रघुकुल-मणि दशरथजी जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्म धुरन्धर, गुणों के समुद्र और शानी थे। उनके हृदय में शाईपाणि (विष्णु भगवान ) की भक्ति और वुद्धि थी ॥४॥