पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२५४

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प्रथम सोपान, बालकाणंड । के सार (ब) हैं। मुनियों के धन, भकजनों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, इनकी पास- लीला के आनन्द में शङ्करजी सुख मांगते हैं ॥१॥ चारों पुत्रों को वेदतत्व, मुनिधन, जनसर्वस्व, शिवप्राण वर्णन करमा द्वितीय उल्लेख प्रसंकार है। बारेहि तें निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन-रति मानी । भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रोति बड़ाई ॥२॥ बरही से ही लचमणजी ने अपने हितैषी स्वामी जान कर रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति माना । भरत और शत्रुहन दोनों भाइयों में परस्पर वैसी ही प्रीति थी जैसी स्वामी-सेवक के स्नेह की प्रशंसा है।॥२॥ शिलष्ट शब्दों द्वारा कविजी एक बार अर्थ प्रकट करते हैं कि भरत-शत्रुहन दोनों प्रभु रामचन्द्रजी के वैसे ही सेवक हैं जैसे सेवक की प्रीति की बड़ाई है "विवृताक्ति अलंकार है। पर यह उदाहरण का अनी है। स्याम गौर सुन्दर दोउ जोरी। निरखहिँ छबि जननी तुन तोरी। चारिउ सील-रूप गुन धामा । तदपि अधिक सुख-सागर-रामा ॥३॥ श्यामल गौर वर्ण की सुन्दर दोनों जोड़ियों की छवि देख कर माताएं तृण वोरती है (जिसमें दीठ न लग जाय)। चारों बालक शील, शोमा और गुणों के धाम हैं, तथापि रामचन्द्रजी अधिक सुख के सागर हैं ॥ ३ ॥ यद्यपि चारोभाई शील.रूप और गुण के स्थान हैं. इस सामान्य कथन में यह कह कर भेद प्रकट करना कि तो भी रामचन्द्रजी बढ़ कर आनन्द के समुद्र हैं 'विशेषक अलंकार' है। हृदय अनुग्रह इन्दु प्रकासा । सूचत किरन मनोहर हासा । कबहुँ उछङ्ग कबहुँ बर पलना । मातु दुलारहिँ कहि प्रिय ललना ॥४॥ हदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है और मनोहर हँसी किरण रूपी सूचित होती है। कभी गोद में और कभी पालने पर माताएँ प्यारे लालन कह कर दुलारती हैं ॥४॥ दो०-व्यापक-ब्रह्म निरञ्जन, निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम-भगति बंस, कौसल्या के गोद ॥ १९८ जो व्यापक-ब्रह्म, माया से निर्लिप्त, निर्गुण, क्रीडारहित और अजन्मे हैं, वे प्रेम और भक्ति के वश में हो कर कौशल्याजी की गोद में विराजमान हैं ॥ १६ ॥ चौ०-कामकोटि-छबि स्याम सरीरा । नीलकज बारिद गम्भीरा । अरुन चरन-पङ्कज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु माती ॥१॥ भील कमल और घने मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेव की छवि है। लाल कमल के समान चरणों के नखा की झलक ऐसी मालूम होती है, मानों कमल के पचा पर मोती बैठे हैं। ॥१॥ ।