पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२७५

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रामचरित मानस । २१८ चौ०--मुनि तव चरन देखि कह राज । कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभोज । सुन्दर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनंदहू के आनंद दाता ॥१॥ राजा जनक कहते हैं-हे मुनिजी ! आप के चरणों के दर्शन से मैं अपने पुण्यं के प्रभाव को नहीं कह सकता। ये श्यामल, गौर और सुन्दर दोनों भाई आनन्द को भी आनन्द देने. वाले हैं ॥१॥ इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि । सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म-जीव इव सहज सनेहू ॥२॥ इनकी पवित्र सुहावनी परस्पर की प्रीति मन में भाती है। किन्तु कही नहीं जा सकती। राजा जनकजी प्रसस होकर कहते हैं-हे नाथ! सुनिये, ब्रह्मा और जीव के समान इनका स्वाभाविक स्नेह है ॥२॥ साधारण अर्थ तो दोनों भाइयों की परस्पर में प्रीति की प्रशंसा है, इसके सिवा एक गुप्त अर्थ दूसरा भी प्रकट हो रहा है कि इनका परस्पर में प्रेम अर्थात् जो इनसे प्रेम करते हैं उन पर ये भी वैसा ही प्रेम करते हैं 'विवृतोक्ति अलंकार' है। पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू । मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लिवाइ नगर अवनीसू ॥३॥ राजा बार बार प्रभु रामचन्द्रजी को देखते हैं, उनका शरीर पुलकित और दय में बहुत ही उमङ्ग है। मुनि के चरणों में मस्तक नवा कर उनकी बड़ाई करके अनकजी उन्हें नगर में लिवा ले चले ॥३॥ सुन्दर सदन सुखद् सब काला। तहाँ बास लेइ दीन्ह भुआला ॥ करि पूजा सब विधि सेवकोई । गयउ राउ गृह विदा कराई ॥४॥ सुन्दर घर जो सब काल सुख देनेवाला है, राजा ने ले जाकर यहाँ डेरा दिया। सब तरह से मुनिकी शुश्रूषा करके विदा माँग कर राजा विदेह महल में गये ॥४॥ .. दो-रिषय सङ्घ रघुबंस-मनि, करि भोजन विनाम। बैठे प्रभु भ्राता सहित, दिवस रहा भरि जाम ॥२१७॥ रघुवंशमणि ने ऋषियों के साथ भोजन करके विश्राम किया। भाई के सहित प्रभु रामचन्द्रजी उठ बैठ और एक प्रहर दिन बाकी रहा ॥२१७॥ इस दोहे में व्याकरण, वैद्यक, नीति और ज्योतिष चारों शास्त्रों का समावेश है। चौ०-लखन हृदय लालसा बिसेखी। जाइ जनकपुर आइय देखी ॥ प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाही । प्रगट न कहहिँ मनहिँ मुसुकाहीं ॥१॥ लक्ष्मस्जी के हृदय में विशेष लालसोहै कि जाकर जनकपुर देख आज; किन्तु राम चन्द्रजी के भय और मुनि के संकोच से प्रत्यक्ष नहीं कहते हैं, मन में मुस्कुराते हैं ॥९॥