पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२७६

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ध्रथम सोपान, बालकाण्ड । २१९ 'लखन हृदय लालसा विशेषो में अस्फुट गुणीभूत क्या है कि जनकपुर देखने की . सामान्य इच्छा रामचन्द्रजी को भी है, पर लक्ष्मणजी को अधिक है। राम अनुज मन की गति जानी। भगतबछलता हिय हुलसानी ॥ परम बिनीत सकुचि मुसुकाई । बोले गुरु अनुसासन पाई ॥ २ ॥ छोटे भाई के मन की दशा जान कर रामचन्द्रजी के हृदय में भक्त वत्सलता उमड़ पड़ी। बड़ी नम्रता से लजाते हुए मुस्कुराने लगे और गुरुजी की आज्ञा पा कर बोले ॥२॥ लक्ष्मणजी के मुस्कुराने से रामचन्द्रजी उनके मनका हाल जान गये और गुरुजी से निवेदन किया। उसी तरह राचन्द्रजी को नम्रता-पूर्वक संकोच से मुस्कुराते देख कर गुरुजी समझ गये और प्रत्यक्ष कहने की आशा दी 'पिहित अलङ्कार' है। नाथ लखन पुर देखन चहहौं । प्रभु सकोच डर प्रकट न कहहाँ । जौँ राउर आयसु में पावउँ। नगर देखाइ तुरत लेइ आवउँ ॥३॥ हे नाथा लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, पर आपके संकोच और डर से प्रकट नहीं कहते हैं। यदि मैं आपकी आज्ञा पाऊ तो नगर दिखा तुरन्त लिवा लाऊँ ॥३॥ रामचन्द्रजी को जनकपुर देखने का स्वयम् इच्छा है, परन्तु लक्ष्मण की लालसा के बहाने गुरुजी से आशा माँगना 'द्वितीय पर्यायाक्ति अलङ्कार' है। सुनि मुनीस कह बचन सप्रीती । कसन राम तुम्ह राखहु नीती धरम-सेतु-पालक तुम्ह ताता। प्रेम-बिबस सेवक-सुख-दाता ॥४॥ सुनकर मुनीश्वर प्रीति के साथ बचन बोले-हे रामचन्द्र ! आप क्यों न नीति(मर्यादा) की रक्षा करेंगे.? हे तात ! आप धर्म-सेतु के पालनेवाले, प्रेम के अधीन और सेवकों को सुख देनेवाले हैं ॥४॥ दो०-जाइ देखि आवहु नगर, सुख-निधान दोउ भाइ । करहु सुफल सब के नयन, सुन्दर बदन देखाइ ॥ २१ ॥ सुख के निधान दोनों भाई जोकर नगर देख आओ। अपना सुन्दर मुख दिखा कर सब के नेत्रों को सफल करो ॥२१॥ चौ०-मुनि-पद-कमल बन्दि दोउ भ्राता । चले लोक-लोचन सुख-दातां । बालक-वृन्द देखि. अति सामा। लगे सङ्ग लोचन मन लोभा ॥१॥ लोगों के नेत्रों को आनन्द देनेवाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों को प्रणाम करके चले । बालक वृन्द अतिशय शोभा देख कर उनके नेत्र और मन ललचा गये, सब साथ में हो लिये ॥१॥