पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२८३

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रामचरित मानस । मुनिवर सथन कीन्ह तब जाई । लगे धरन चाँपन दोउ भाई ॥ जिन्ह के चरन-सरोरुह लागी। करत विविध जप जोग विरांगी ॥२॥ तव मुनिवर ने जाकर शयन किया और दोनों भाई उनके पाँव दवाने लगे। जिनके चरण- कमलों के लिए वैराग्यवान् लोग अनेक प्रकार के जप योग करते हैं ॥ २ ॥ ते दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुरु-पद-पदुम पलोटत प्रीते ॥ बार बार मुनि आज्ञा दीन्ही । रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥३॥ ऐसा मालूम होता है कि उन्हीं दोनों भाइयों को मानों प्रेमने जीत लिया हो, इसी से गुरु के चरण-कमलों को प्रीति से दवा रहे हैं । जय मुनि ने धार धार आशा दी, तब जा कर रघुनाथजी ने शयन किया ॥३॥ चाँपत चरन लखन उर लाये । समय सप्रेम परम सचु पाये ॥ पुनि पुनि प्रभु कह सावहु ताता । पौढ़े धरि उर पद-जल जाता ॥४॥ तब लक्ष्मणजी बड़े बन्धु के चरणों को मन लगा कर डरते हुए प्रेम से अत्यन्त आनन्द में प्राप्त होकर दवाने लगे। प्रभु रामचन्द्रजी ने बार बार कहा-हे तात! सोने, चरण-कमलों को हदय में रखकर पौढ़े ॥४॥ भय इस बात का कि स्वामी के कोमल अङ्गों में कहीं मेरे कढ़े हाथों का दवाव न लग जाय । प्रेम-सेवा करने में, पानन्द-सफलता पर हो रहा है। दो-उठे लखन निसि विगत सुनि, अरुनसिखा धुनि कान । गुरु तँ पहिलेहि जगतपति, जागे राम सुजान ॥२६॥ रात्रि बीतने पर मुर्गे का शब्द कान से सुन कर लक्ष्मणजी उठे। जगदीश्वर सुजान रामचन्द्रजी गुरु से पहले ही जागे ।। २२६ ।। नीति वर्णन है। शयन गुरु, रामचन्द्र और लक्ष्मण का क्रमशः कहा, किन्तु उठना उसके विपरीत पहले लक्ष्मण, रामचन्द्र और पीछे गुरु का वर्णन किया। विचौध सञ्चारी भाव है। चौथ-सकल सौच करि जाइ नहाये । नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाये ॥ समय जानि गुरु आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥१॥ सब शौच कर के जा कर स्नान किया और नित्य कर्म पूरा कर मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का ) समय जान और गुरुजी की भाशा पा. कर दोनों भाई फून लेने के लिए 'समय जानि गुरु' इस श्लिष्ट शब्द द्वारा साधारण अर्थ के सिवा एक गुप्त अर्थ को कविजी प्रकट करते हैं कि श्रेष्ठतर समय जान कर-"राजकुमारी इसी समय गौरी पूजन के लिए बाग में भावेगी, चलने से दर्शन लाभ होगा, गुरु की भाशा से फूल लेने मले"। यह "विवृतोक्ति अलंकार है। चले ॥१॥