पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९

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में गोसाईजी की कुटी थी और कुछ ही दिन हुए उक्त स्थान पर उनके स्मारक के लिये एक विशाल मन्दिर चन्दे से निर्माण हुआ है । उस मन्दिर में गोसाईजी के हाथ का लिखा अयोध्याकांड अबतक विद्यमान है, तो भी वहाँ के कुछ वृद्ध अनुभवी मनुष्य कहते हैं कि या गोस्वामीजी का जन्मस्थान नहीं है वरन् विरक्त होने पर वे यहाँ कुछ दिन रहे थे और प्रायः श्राया करते थे। कहते हैं कि गोसाईजी के हाथ का लिसा रामचरितमानस सातोकाण्ड यहाँ था। किलो दुस्ट ने उसे चुरा लिया। जव उसका पीछा किया गया, तब उसने पुस्तक को यमुना नदी में फेंक दिया। पड़ी पोज से पाजल के वाहर निकाली गयी। उसके छे काण्ड तो गल गये, केवल अयोध्याकाण्ड कुछ पढ़ने योग्य बच गया। उसके पृष्ठों पर पानी के धन्ये अवतक वर्तमान हैं और कहीं कही अक्षरों की ऐसी लीपापोती हो गयी है कि वे बड़ी कठिनता से पढ़े जाते हैं। नाति। आति के सम्बन्ध में भी मतभेद है। कोई कान्यकुब्ज और कोई सरयूपारीण कहता है। मालकल्पगुम के का राजा रामप्रताय और मिश्रय न्धुओं में कान्यकुब्ज माना है। पंडित रामगु खाम द्विवेदी, ठाकुर शिवसिंह और डाक्टर ग्रिअर्सन आदि ने तो पाराशर गोत्र मे सरयूपारी ये कहा है। काशीनागरा-प्रचारिणी सभा के सदस्यों और महात्मा रघुवरदास ने भी सरयूपारीण ही वर्णन किया है। अन्तर केवल इतना है कि रघ बरदास ने दूधे नहीं, मिश्र कहा है। अधिक मत सरयूपारीण ही को और है, इससे यही प्रमाणिक प्रतीत होता है। माता और पिता । माता पिता का नाम भी मतभेद से खाली नहीं है। कुछ लोग इनके पिता का नाम प्रामा राम दूधे और माता का नाम दुलसी कहते हैं । माता का नाम बहुत सम्भव है कि यही रहा हो, क्योंकि रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने लिखा है-"तुलसिदास हित हिय हुलसी सी इसी आधार पर बहुतों का अनुमान है कि माता का नाम हुलसी था। परन्तु अपने किसी अन्ध में गोलॉईजी ने पिता का माम प्रत्यक्ष वा संकेस द्वारा कहीं भी प्रकट नहीं किया है । जिन लिन लेखकों ने सुनी सुनाई बातों के आधार पर आत्माराम वे उनके पिता का नाम कहा है, उनके समक्ष महात्मा रघुवरदास का कथन विशेष विश्वास के योग्य है । तुलसीचरित में उन्होंने गोस्वमीजी के पिता का नाम मुरारी मिश्र लिखा है, इसलिये श्रात्माराम दूबें उनके पिता का नाम नहीं था। विनयपत्रिका में गोसाँईजी ने अपने माता-पिता के सम्बन्ध में लिखा है कि जननि जनक तजे जमष्टि करम विनु, विधि लिरजेड श्रवडेरे । पुनःस्वच तजत कुटिलकीट ज्यों, तज्यो भातु- पिता" इसी प्रकार कवित्त रामायण में लिखते मातु पिता लग. जाइ तज्यो विधिह न लिख्यो कछु भूलि भलाई । पुनः-वारे ते ललात बिललात द्वार बार दीन, जानत हौ चारि फल चारि चनक को!" इत्यादि पदो के आधार पर बहुतेरे विद्वान तर्क थान से तरह तरह के निष्कर्ष निकालते हैं कि इनके माता-पिता अत्यन्त गरीब थे। किसी का यह भी कहना है कि अभुक्तमूल में उत्पन्न होने के कारण अन्मते हो माता-पिता ने उन्हें फेंक दिया और किसी साधु ने लेजाकर पालन पोषण किया। परन्तु ये बातें असंगत सी जान पड़ती हैं, इस सम्बन्ध में मेरा तो यह अनुमान है कि इस तरह की धातें गोस्वामीजी ने केवल दैन्यभाव दर्शाने के लिये कहा है। उनका यह कथन वैसा ही जान पड़ता है जिस प्रकार रामचरितमानस में उन्हों ने शपथपूर्वक अपने को काव्यगुण से अनमिष कहा है कि- -