पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०

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1 "कवित विवेक एक नहिँ भोरे । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे " तो या इसले यह मान लेने योग्य है किये काव्य के शान से रहित थे? यदि 'जननि जनक तज्यो का तात्पर्य यही मान लिया जाय कि बचपन ही में माता- पिता ने उन्हें त्याग दिया था तो अनुमान यह कहता है कि बाल्यावस्था ही में माता-पिता स्वर्गवासी हुए होंगे। श्रीश्रयहीन होने से गोसाँईजी साधुमंडली में रहने लगे। हनुमानबाहुक के--"बालपने सुधमन राम सनमुख भयो, रामनाम लेत मॉगि खात टूकटाक हौं । पयोलोक- रीति में पुनीत प्रीति रामराय, मोहबस बैठो तारितरकि तराक हौं ॥ खोटे खोटे प्राचरन आचरत अपनायो, अञ्जनीकुमार सोध्यो रामपानि पाका हौं । तुलसी गोसाँई भयो भोड़े दिन भूलि गया, तोको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥" इस कवित्त के अनुसार सम्भव है कि विवाह कर गृहस्थाश्रमी हो फिर लेक व्यवहार में फंस गये हों और स्त्री के उपदेश से विरक्त होकर पुनः हरिभजन में लीन हुए हो । इस अनुमान से बातों की लड़ी कुछ मिल जाती है। परन्तु रघुबरदास ने इनके पिता को खूब धनी लिखा है और यह भी कहा है कि उन्होंने गोसाँईजी का तीसरा विवाह ६०००) तिलक लेकर किया था। ऐसी दशा में बाल्यकाल में माता-पिता के त्यागने की बात मिथ्या सिद्ध होती है। विवाह और वैराग्य । गोसाँईजी का प्रथम विवाह दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। उसके गर्म से तारक नाम का एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जो वचपन ही में परलोकगामी हो गया और वह स्त्री भी मर गयो । दूसरे विवाह की पत्नी गत हो जाने पर तीसरा विवाह कञ्चनपुर निवासी लछमन उपाध्याय की कन्या बुद्धिमती के साथ हुमा । यह स्त्री अत्यन्त रूपवती और विदुषी थी। गोसाँईजी उस पर बड़ा प्रेम रखते थे। एक दिन किसी कार्य से ये पास के दूसरे ग्राम में गये थे और बुद्धिमती अपने पिता के घर चली गयी। जब ये घर आये और सुना कि वह पिता के घर गयी है तब पत्नी-वियोग से अधीर हो उस अंधेरी रात में श्वसुर के र जा पहुँचे । इमका आगमन सुन कर स्त्री मन में भयभीत हुई और आश्चर्य से कहा-नाथ ! आपका जितना प्रेम मेरे अस्थि चर्ममय शरीर से है यदि वैसो प्रीति रघु- नोथजी में होती तो संसार छूट जाता । स्त्री की बात गोसाईजी के लिये जादू का काम कर गयी । उनके इदय से प्रशानान्धकार दूर हो कर वैराग्य-सूर्य का उदय हो पाया। सुरन्त वहाँ से चल पड़े और काशीपुरी में आकर हरिस्मरण करने लगे। तपस्या और प्रेत का सम्भाषण। बाबा रामायण शरण से सुनने में आया थो कि गोसाँईजी ने प्रथमवार पचासी करोड़ राम- नाम जपने का संकल्प कर उसे पूर्ण किया। प्रतिदिन शौच के लिये गङ्गा पार जाया करते थे। शौच के अनन्तर लोटे में जो जल बचता वह स्वभावतः एक वृक्ष की जड़ में डाल दिया करते थे। उस वृक्ष में बहुत काल से एक प्रेत निवास करता था, वह एक दिन प्रसन्न होकर बोला कि आपने जल से मुझे खूब ही तृप्त किया है इसके बदले में मुझसे माँगने योग्य जो वस्तु हो माँगिये, में उसे देने को तैयार हूँ। गोस्वामीजी ने कहा- मुझे और कुछ न चाहिये रघुनाथजी के दर्शन करा दो। यह सुन कर प्रेत बोला कि यद्यपि यह बात मेरी शक्ति से बाहर है, तो भी एक उपाय मैं बतलाता हूँ। यदि i