पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९७

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सुफल मनोरथ रामचरित-मोनस। को सुन कर सस्त्रियों के सहित सीताजी हृदय में हपित हुई। तुलसीदासजी कहते हैं वार बार भवानी की पूजा कर के प्रसन्न मन से घर को चली ॥ १ ॥ सो०-जानि गौरि अनुकूल, सिय-हिय-हरष न जाइ कहि । मजुल-मङ्गल-मूल, बाम अङ्ग फरकन लगे ॥ २३६ ॥ पार्वतीजी को प्रसन्न जान कर सीताजी के मुदय में जैसा हप हुना, वह कहा नहीं जा सकता । सुन्दर मङ्गलों का मूल बायाँ श्रङ्ग फड़कने लगा ॥ २३६ ॥ अनुकूल र पा कर सीताजी का मन में प्रसन्न होना हप' सञ्चारी है। चौ हृदय सराहत सीय लोनाई । गुरु समीप गवने दोउ भाई ॥ राम कहा सब कैासिक पाहीं। सरल सुभाउ छुआ छल नाहीं ॥१५ हृदय में सीताजी की सुन्दरता सराहते हुए दोनो भाई गुरु के समीप चले । रामचन्द्रजी ने सघ हाल विश्वामित्रजी से कहा, उनके सीधे स्वभाव को छलने नहीं छुपा है ॥१॥ सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही । पुनि असीस दुहुँ भाइन्ह दीन्हीं। होहु तुम्हारे । राम लखन सुनि भये सुखारे ॥२॥ फूल पा कर मुनि ने पूजा की, फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हो, रामचन्द्र और लक्ष्मणजी सुन कर सुखी हुए ॥२॥ करि भाजन मुनिबर विज्ञानी । लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥ बिगत-दिवस गुरु आयसु पाई । सन्ध्या करन चले दोउ भाई ॥३॥ विज्ञानी मुनि श्रेष्ठ भोजन कर के कुछ पुरानी कथा कहने लगे। दिन बीत जाने पर गुरु की आज्ञा पा कर दोनों भाई सन्ध्या करने चले ॥३॥ प्राची दिसि ससि उयेउ सुहावा । सिय-मुख सरिस देखि सुख पावा ॥ बहुरि बिचार कीन्ह मन माहीं । सीय बदन सम हिमकर नाहीं ॥४॥ पूर्व दिशा में सुन्दर चन्द्रमा उदय हुए हैं, सीताजी के मुख के समान देख कर सुखी हुए । फिर मन में विचार किया कि चन्द्रमा सीताजी के मुख के बराबर नहीं है ॥ ४॥ दो-जनम-सिन्धु पुनि बन्धु-विष, दिन-मलीन सकलङ्क । सिय-मुख समता पाव किमि, चन्द्र बापुरो रङ्क ॥ २३७ ॥ इसका जन्म समुद्र से फिर हलाहल का भाई है, दिन में मलिन रहनेवाला और कलङ्की है । तब वेचारा दरिद्री चन्द्रमा सीता के मुख की बराबरी कैसोपा सकता है ? ॥२३७ ॥ उपमान चन्द्रमा से उपमेय सीताजी के मुख में अधिक गुण वर्णन करना 'व्यतिरेक अलंकार' है । मुख के मोकाबिले में चन्द्रमा को वपुरा और कङ्गाल कह कर व्यर्थ ठहराना 'पञ्चम प्रतीप अलंकार' है। अलंकार प्रकाश के रचयिता ने इस दोहे में उदाहरण प्रार्थी का तृतीय भेद व्यतिरेक माना है और अलंकार मञ्जूषा के लेखक ने उसी का अनुकरण किया है। परन्तु मेरे विचार में यहाँ दोनों का सन्देहसङ्कर है।