पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२२

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है प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २६५ कर काँपने लगे । देवता, दैत्य और सुनि लोग कान पर हाथ रख कर सब व्याकुलता से विचारते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि (जब यह निश्चय हो गया कि ) रामचन्द्रेजी ने शिव-धनुष को तोड़ा है, तब वे जय जयकार की वाणी उचारते हैं ॥१९॥ सो०--सङ्कर-चाप 'जहाज, सागर रघुबर बाहुबल ॥ बूड़ से सकल समाज, चढ़े जो प्रथमहि माह-बस ॥२६१॥ शिवजी का धनुषांजहाज रूप है और रघुनाथजी का वाहु-बल समुद्र रूप है। वह सारा समाज जो पहले ही मोह के अधीन, होकर चढ़ा (जिसका वर्णन २६० दोहे के ऊपर कर पाये हैं) डूब गयो ॥२६॥ सब का सन्देह और श्रज्ञान, नीच राजाओं का अभिमान, परशुराम के गर्व की गुरुता, देवता और मुनियों की कायरता, सीताजी का सोच, जनक पश्चात्ताप, रानियों के दुःख की ज्वाला, ये सब पथिक रूप समाज जोड़ कर शिवजी के धनुष रूपी जहाज पर जा बढ़े और रामचन्द्रजी का वाहुबल समुद्र रूप है। जहाज माँझी रहित है। धनुष टूटना जहाज का इबना है, क्योंकि उसके टूटते ही पथिक समाज समुद्रतस्त में चला गया किसी का पता न लगा। यह परम्परित का ढालिए हुए "सम अभेद रूपक अलंकार" है। यहाँ लोग कल्पना करते हैं कि सोरठे का पूर्वार्द्ध लिख कर गोसाईजी रुक गये तब उत्तरार्द्ध को हनूमानजी ने लिख दिया । परन्तु यह बिल्कुल असङ्गत बात है, कबिजी तो जान बूझ कर ऐसा रूपक पहले ही बाँध आये हैं फिर उनकी लेखनी क्यों रुकने लगी? जैसे अनेक स्थलों में तरह तरह के अर्थ गढ़ गये हैं, उन्हीं में से एक यह भी है। चौ०-प्रभु दोउ चाप-खंड महि डारे। देखि लोग सब भये सुखारे । कासिक रूप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाह सुहावन ॥१॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने धनुष के दोनों टुकड़े भुमि पर गिरा दिये, यह देख कर सब लोग सुखी हुए । विश्वामित्र रूपी पवित्र समुद्र में प्रेम रूपी सुहावना अथाह जल (उमड़ रहा) है ॥१॥ राम रूप राकेस निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥ बाजे नभ गहगहे निसाना । देववधू नाचहि. करि गाना ॥२॥ रामचन्द्रजी रूपी पूर्णचन्द्रमा को देख कर पुलकावली रूपिणी भारी तरा बढ़ रही है। आकाश में धूम के साथ नगाड़े बजते हैं और देवाङ्गनाएँ गान कर के नाचती हैं ॥२॥ ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहि देहि असीसा ।. अरषहिँ सुमन रङ्ग बहु माला । गावहिं किंवर गीत रसाला ॥३॥ ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और मुनीश्वर प्रभु की बड़ाई कर के आशीर्वाद देते हैं। बहुत 'रके फूलों की माला बरसाते हैं और किन्नराण रसीला गीत गाते हैं ॥३॥ रामचन्द्रजी का धनुष-भङ्ग करना देख कर दवताओं का चित्त प्रसाद 'हर्ष सञ्चारी-