पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४६

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भ्रथम सोपान, बालकाण्ड । २८० बी०-निपटहि द्विज करिजानहिमाही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ॥ चाप-खुवा सर-आहुति जानू । कोप मोर अति घोर-कृसानू ॥१॥ तू मुझ को केवल ब्राह्मण ही जानता है ? मैं जैसा ब्राह्मण हूँ वह तुझे सुनाता हूँ । धनुष को सुवा (खैरकी लकड़ी का बना कलछा जिससे यश मै बाहुति दी जाती है) और वाण को आहुति तथा मेरे क्रोध को अत्यन्त भीषण अग्नि समझो ॥१॥ समिध सेन चतुरङ्ग सुहाई । महा-महीप भये पसु आई ॥ मैं एहि परसु काटि बलि दीन्हे । समर-जज्ञ जग कोटिन्ह कीन्हे ॥२॥ चतुरक्षिणी सेना होम की सुन्दर लकड़ी है, बड़े बड़े राजा श्रा कर बलिपशुहुए हैं। मैं ने इसी फरसे से काट कर बलिदान दिया है, संसार में ऐसा करोड़ों समर यज्ञ किया है ॥२॥ अपनी शूरता वर्णन "गर्व सञ्चारी भाव' है। मोर प्रभाव विदित नहिँ तोरे । बोलसि निदरि बिन के भोरे ॥ भजेउ चाप दाप बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जग ठाढ़ा ॥३॥ मेरा प्रभाव तुझ को प्रकट नहीं है, ब्राह्मण के धोने मेरा निरादर कर के बोलता है। धनुष तोड़ डाला इससे बड़ा धमण्ड बढ़ गया १ ऐसा अहङ्कार मालूम होता है मानों जगत् को जीत कर खड़े हो ॥ ३॥ राम कहा मुनि कहहु विचारो। रिस अति बडि लघु चूक हमारी। छुअतहि टूट पिनाक पुराना । मैं केहि हेतु करउँ अभिमानो ॥४॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे मुनि ! विचार कर कहिए, अपि का क्रोध बहुत बड़ा है और मेरी चूक थोड़ी है। पुराना धनुष छूने ही टूट गया, मैं अभिमान किस कारण कसँगा ॥४॥ दो-जाँ हम निदरहिं विप्र बदि, सत्य सुनहु भृगुनाथ । तो अस को, जग सुभट जेहि, भय-बस नोवहि माथ ॥२३॥ हे भृगुनाथ ! सुनिए, यदि हम सचमुच ब्राह्मण कह कर निरादर करेंगे तो संसार में ऐसा शूरवीर कौन है । जिसको मैं डर से मस्तक नवाऊँगा ॥ २३ ॥ मैं ब्राह्मण के अनादर से डरता हूँ, किसी योद्धा को डर से मस्तक नहीं झुका सकता। मेरा सिर ब्राह्मणों ही के चरणों में झुकता है, योद्धा के नहीं । यह व्यङ्गार्थ और वाच्यार्थ दोनों में समान चमत्कार होने से गुणीभूत व्यंग है। चौ०-देव दनुज भूपति अट नाना । सम बल अधिक होउ बलवाना । जौँ रन हमाहि पचारइ कोऊ। लरहिँ सखेन काल किन होऊ ॥१॥ देवता, दैत्य और राजारों में विविध योद्धा चाहे समान बल का हो चाहे अधिक बलवान हो । यदि युद्ध के लिए हमें कोई ललकारे तो काल ही क्यों न हो मैं प्रसन्नता से .