पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६३

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३०४ रामचरित मानस । दो-तुरग नचावहिं कुँअर बर, अकनि मृदा निसान। नागर नट चित्तवहिँ चकित, डगहि न ताल बँधान ॥३०२॥ सुन्दर राजकुमार मृदङ्ग और नगारे को सुन कर घोड़ों को नचाते हैं। वे (तुरक) ताला की गति से उगते नहीं, चतुर नचवैया उन्हें आश्चर्य से देखते हैं ॥ ३०२ ॥ नगर-नटों के मन में घोड़ों का ताल में बँध कर नाचने का आश्चर्य स्थायी भाव है। चौ अनइ न बरनत बनी बराता । होहिं सगुन सुन्दर सुभ-दाता ॥ चारा-चाष बाम दिसि लेई । मन सकल मडल कहि देई ॥१॥ बरात की सजावट का वर्णन नहीं करते धनता है, सुन्दर भाल-दायक सगुन हो रहे हैं। नीलकण्ड पक्षी बाई और चारा लेता है, वह ऐला मालूम होता है मानों सारा माल कहे देता हो ॥१॥ नीलकण्ठ का यात्रा के समय वाम दिशा में चारा घुगते हुए दिखाई पड़ना अस्वस्त श्रेष्ठ शकुन है । परन्तु पक्षी जड़ है, मनुष्य भाषा बोलने की उस में शक्ति नहीं है। उसमें समस्त मङ्गल कथन की कल्पना करना प्रसिद्ध आधार है। इस अहेतु को हेतु ठहराना 'श्रसिद्ध विषया हेतत्प्रेक्षा अलंकार' है। दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल दरस सब काहू पावा । सानुकूल बह त्रिबिधि बयारी । सघट सबाल आव बर नारी ॥२॥ दाहिने कौत्रा अच्छे स्थान में सोह रहा है और पाले का दर्शन सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की हितकर हवा यह रही है, श्रेष्ठ ( सौभाग्यवती) स्त्री कलश के सहित गोद में बालक लिये आ रही है ।।२॥ 'वर शब्द में सुहागिन श्री व्यजित करने की ध्वनि है। 'लोवा फिरि फिरि दरस देखावा । सुरभी सनमुख सिसुहि पियावा ॥ मृगमाला फिरि दाहिनि आई । मङ्गल-गन जनु दोन्हि देखाई ॥३॥ लोमड़ी ने धूम घूम कर दर्शन दिखाया और गैया सामने बछड़े को पिलाती है। वाहिनी ओर घूम कर हरिनों का भुण्ड पाया, वह ऐसा जान पड़ता है मानो मङ्गल की राशि दिखा दिया हो॥ छेमकरी कह छेम बिसेखी । स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥ सनमुख आयउ दधि अरु मीना । कर पुस्तक दुइ विप्र प्रधोना ॥४॥ क्षेमकरी ( सफेद सिर वाली चील्ह) विशेष क्षेम कह रही है, श्यामा पक्षी वाम दिशा में सुन्दर वृक्ष पर लोगों ने देखी । दही, मछलो और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए सामने आये ॥४॥ क्षेमकी का क्षेम कहना, कारण के , समान कार्य का वर्णन वित्तीय सम अलंकार' है।