पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३६८

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । पुनि दंडवत करत दोउ भाई । देखि नृपति उर सुख न समाई। सुत हिय लाइ दुसह दुख मेटे । मृतक-सरीर प्रान जनु भंटे ॥२॥ फिर दोनों भाइयों (राम-लक्ष्मण) को दण्डवत करते देख कर राजा के हृदय में सुख समाता नहीं है। पुत्रों को छाती से लगा कर दुस्सह दुःख दूर किया, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों मुर्दा शरीर प्राण पाया हो ॥ २ ॥ पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाये । प्रेम मुदित मुनिवर उर लाये ॥ बिप्र-बन्द बन्दे दुहुँ भाई। मनभावतो असीस पाई ॥३॥ फिर उन्होंने पशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया. प्रेम से प्रसन्न हो कर मुनिवर ने उदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने ब्राह्मणवृन्द की वन्दना की और मनवाञ्छित प्राशि- दि पाये ॥३॥ भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा । लिये उठाइ लाइ उर रामा ॥ हरषे लखन देखि दोउ धोतो । मिले प्रेम-परिपूरित-गाता en छोटे भाई शनुहन के सहित भरतजी ने प्रणाम दिया, रामचन्द्रजी ने उठा कर उन्हें हृदय से लगा लिया । लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देख कर प्रसन्न हुए और प्रेम-परिपूर्ण अङ्ग से मिले ॥४॥ दो०-पुरजन परिजन जातिजन, जाचक मन्त्री मीत । मिले जथाविधि सबहि प्रभु, परम कृपाल बिनीन ॥३०८॥ अयोध्या निवासी प्रजाजन, कुटुम्बी, जाति के लोग, मङ्गन, मन्त्री और मिन सब से यथायोग्य अत्यन्त कृपालु प्रभु रामचन्द्रजी नम्रता पूर्वक मिले ॥ ३० ॥ चौ०-रामहिँ देखि बरात जुड़ानी । प्रोति कि रीति न जाति बखानी॥ नृप समीप साहहिँ सुत चारी। जनु धन-धरमादिक तनु-धारी॥१॥ रामचन्द्रजी को देख कर बरात शीतल हुई, वह प्रीति की रीति बसानी नहीं जाती है। राजा के समीप चारों पुत्र सोहते हैं, वे ऐसे मालम होते हैं मानो शरीर धारण किये हुए अर्थ, धम, काम और मोक्ष चारों फल शोभित हो ॥१॥ वारों फल शरीरधारी नहीं होते, यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है । रामचन्द्रजी-मोक्ष, भरतजी-काम, लक्ष्मणजी-अर्थ और शत्रुहनजी-धर्म हैं। सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर-नर-नारि बिसेखी। सुमन बरषि सुर हनहिँ निसानी । नाक-नटी नाचहिँ करि गाना ॥२॥ पुत्रों के साहित, दशरथजी को देख कर नगर के स्त्री-पुरुप अधिक प्रसन्न हुए। फूल परसा कर देवता नमारे बजाते हैं और भाकाश में नाचनेवाली ( अप्सराये ) नाचती है तथा शान करती हैं ॥२॥ 1