पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७१

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रामचरित मानस । हरिगीतिका- छन्द । उपमा न कोउ कह दासतुलसी, कतहुँ कबि कोबिद कहैं वल-बिनय-विद्या-सील,-सामा सिन्धु इन्ह सम एइ अहँ । पुर-नारि सकल पसारि अञ्चल,विधिहि बचन सुनावहीं। व्याहियहु चारिउ भाइ एहि पुर, हम सुमङ्गल गावहीं ॥२०॥ तुलसीदासजी कहते हैं-इनकी कोई उपमा नहीं है और न कहीं कवि विद्वान् कहते हैं। चल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान येही हैं । नगर की सम्पूर्ण स्त्रियाँ आँधर फैला कर ब्रह्मा को विनती सुनाती हैं कि चारों भाई इसी नगर में ब्याहे जाँय और हम सष सुन्दर मंगल गाँ॥२०॥ रामचन्द्र लक्ष्मण और भरत-शत्रुहन उपमेय के सामने उपमान का अभाव कह कर उन्हीं को उपमान बनाना कि इनके समान येही हैं 'अनन्वय अलंकार है। सो-कहहि परसपर नारि, बारि-बिलोचन पुलक-तन । सखि सब करब पुरारि, पुन्य पयोनिधि भूप दोउ ५३११॥ नेत्रों में जल भर कर पुलकित शरीर से लियाँ आपस में कहती हैं। हे सखी! शिवजी सव पूरा करेंगे, क्योंकि दोनों राजा पुण्य के सागर हैं ॥ ३११ ॥ चौ०-एहिबिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँदउमगि उमगि उर भरहीं। जे नृप सीय-स्वयम्बर आये । देखि बन्धु सब तिन्ह सुख पाये ॥१॥ इस तरह सष अभिलाषा करती हैं, भानन्द की लहरें उमड़ उमड़ कर हदय में भर रही हैं। जो रोजा सीताजी के स्वयम्बर में आये थे, वे लय चारों भाइयों को देख कर सुखी हुए॥१॥ कहत राम जस बिसद बिसाला । निज निज भवन गये महिपाला ॥ गये बोति कछु दिन एहि भाँती । प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥२॥ रामचन्द्रजी के स्वच्छ विस्तृत यश को कहते हुए राजा लोग अपने अपने घर को गये। इसी तरह कुछ दिन बीत गया, सम्पूर्ण बराती और घराती अतिशय प्रसन्न हैं ॥२॥ मङ्गल मूल लगन-दिन आना । हिम-रितु अगहन मास सुहावा । ग्रह तिथि नखत जोग बर बारू । लगन साधि विधि कीन्ह बिचारू ॥३॥ मंगलमूल लग्न का दिन आ गया, हेमन्त ऋतु सुहावना अगहन का महीना, प्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और श्रेष्ठ दिन में लग्न खोज फर ब्रह्मा ने विचारा ॥३॥