पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३८१

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३२२२ रामचरित मानस ।। पूजे भूपति सकल “बराती। समधी सम सादर सब भाँती ॥ आसन उचित दिये सब काहू । कहउँ कहा मुख एक उछाहू ॥२॥ राजा ने सम्पूर्ण वगतियों का समधी के समान सब तरह आदर के साथ पूजन किया। सब को सचित आसन दिया, मैं एक मुख से उस उत्साह को कैसे कहूँ ॥२॥ श्राधेय रूप उत्साह बहुत है औरा प्राधार रूप मुख कहने के लिये एक ही है। लघु आधार में बड़े अधेिय कारखना द्वितीय अधिक अलंकार है। सकल रात जनक सनमानी। दाल मान बिनती बर बानी ॥ विधि-हरि-हर-दिसिपति-दिनराऊ । जे जानहिं रधुधीर प्रभाऊ ॥३॥ दान, प्रतिष्ठा और श्रेष्ठ वाणी से विनती कर के जनकजी ने समस्त बरात का सम्मान किया । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल और सूर्य आदि जो रघुनाथजी की महिमा जानते हैं ॥३॥ कपट विप्र-बर बेष बनाये । कौतुक देखहिँ अति सचु पाये ॥ पूजे जनक देव सम जाने । दिये सुआसन बिनु, पहिचाने ॥४॥ छल से उत्तम प्रामण का रूप बनाये हुए और अत्यन्त श्रानन्द को प्राप्त हो कर कुत्- हाल देखते हैं। जनकजी ने उन्हें देवता के समान जान कर पूजा और बिना पहचाने सुन्दर श्रासन दिया ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द। पहिचान को केहि जान सबहि, अपान सुधि भारी भई। आनन्द-कन्द बिलोकि दूलह, उभय-दिसि आनँद मई ॥ सुर लखे राम सुजान पूजे, मानसिक आसन दये। अवलोकि सील सुमाउ प्रक्षु को, विबुध मन प्रमुदित भये ॥२६॥ कौन किसको पहचानता और जानता है ? सब को अपनी ही सुधि भूली हुई है। श्रानन्द के मूल दूलह को देख कर दोनों ओर आनन्द छाया हुआ है । सुजान रामचन्द्रजी ने देवताओं को देखा, मानसिक श्रासन देकर उनकी पूजा की । प्रभु के शील और स्वभाव को देख कर देवता मन में प्रसन हुए ॥ २६॥ कौन किसको पहचानता है ? इस कथन से समर्थन में हेतु सूचक बात कहना कि सब को अपनी ही सुधि भूली हुई है अर्थात् जब अपने शरीर का सवाल नहीं तव दूसरे की पहचान कैसे होगी 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है । देवताओं के कपट-वेश को रामचन्द्रजी जान गये, उन्हें मानसिक श्रासन दे कर सत्कार किया 'सूक्ष्म अलकार है। दो०- रामचन्द्र-मुख चन्द्र-छबि, लोचन चारु चकोर । करत पान सादर सकल, प्रेम प्रमोद न थोर ॥३२१ ॥ रामचन्द्रजी'के मुख रूपी चन्द्रमा की छवि कपी किरण को सुन्दर नेत्र रूपी सम्पूर्ण चकोर आदर के साथ पान करते हैं, उन्हें कम प्रीति और आनन्द नहीं है ॥ ३२१ ॥ ।