पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४१२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २५३ आरति करहिँ मुदित पुर नारी । हरषहिँ निरखि कुँअर बर चारी॥ सिबिका सुभग ओहार उधारी । देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥४॥ नगर की स्त्रियाँ प्रसन्न हो कर आरती करती हैं और चारों श्रेष्ट कुँवरों को देख कर आनन्दित होती हैं। पालकी का सुन्दर परदा हटा कर दुलहिनों को निहार कर सुखी होती हैं ॥४॥ दो०-एहि बिधि सबही देत सुख, आये राजदुआर । मुदित मातु परिछन करहिँ, बधुन्ह समेत कुमार ॥३४॥ इस तरह सब को सुख देते हुए राजवार पर आये, बहुओं सहित राजकुमारों की माताएँ प्रसन्न हो कर परछन करती हैं ॥३४॥ चौ०-करहिँ आरती बारहिँ बारा । प्रेम प्रमोद कहइ को पारो ॥ भूषन मनि पट नाना जाती। करहिनिछावरि अगनित भाँती ॥१॥ बारम्बार भारती करती हैं, वह प्रेम और आनन्द कह कर कौन पार पा सकता है। गहना, रत्न, अनेक तरह के वस्त्र प्रासंख्यों प्रकार की चीजें न्योछावर करती हैं ॥१॥ बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी । पुनि पुनि सीय-राम छवि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥२॥ पताओं के सहित चारों पुत्रों को देख कर माताएँ परम आनन्द में डूब गई। बार बार सीताजी और रामचन्द्रजी की छवि को देख अपने जीवन को संसार में सफल मान कर प्रसन्न हो रही हैं ॥२॥ माताओं के हृदय में पुत्र-विषयक रतिभाव पूर्णावस्था को प्राप्त है। सखी सीय-मुख पुनि पुनि चाही । गान करहिं निज-सुकृत सराही । बरहि सुमन छनहिँ छन देवा । नाचहिँ गावहिँ लावहि सेवा ॥३॥ सखियाँबार बार सीताजी का सुख अवलोकन कर अपने पुण्य की प्रशंसा का गान करती हैं । देवतावृन्द क्षण क्षण में फूल बरसते हैं, नाचते और गाते हुए अपनी अपनी सेवा जना रहे हैं ॥३॥ देखि मनोहर चारिउ जोरी । सारद उपमा सकल ढंढारी ॥ देत न बनइ निपट लघु लागी । एकटक रही रूप अनुरागी net चारों मनोहर जोड़ियों को देख कर सरस्वती ने सारी उपमाओं को टटोल कर हद डाला। वे सर्वथा तुच्छ लगती हैं समानता देते नहीं बनती है, (तब हृदय में हार कर और उपमानों की खोज छोड़ करवे) रूप में अनुरक्त हो टकटकी लगाकर निहार रही हैं ॥४॥ ४५