पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४१७

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" रामचरितमानस दो०--सुतन्ह समेत नहाइ नृप, बोलि बिप्र गुरु ज्ञाति । भोजन कीन्ह अनेक विधि, घरी पञ्जु गइ राति ॥३५४॥ पुत्रों के सहित स्नान कर के राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्वियों को बुला कर अनेक प्रकार के (पक्वान्न ) भोजन किये और पाँच घड़ी रात बीत गई ॥३yan चौ०-- मङ्गल गान करहिँ बर भामिनि । भइ सुखमूल मनोहर जामिनि ।। अँचइ पान सब काहू पाये । खग-सुगन्ध भूषित छघि छाये ॥१॥ सुन्दर स्त्रियाँमङ्गल गान करती हैं, सुख की मूल मनोहारिणी रात्रि हुई है । सब ने मुँह हाथ धो कर पान और फूलों की माला, सुगन्धद्रव्य (एन आदि) से विभूषित छवि को भोप्त हुए॥२॥ रामहि देखि रजायसु पाई । निज निज भवन चले सिर नाई। प्रेम प्रमोद बिनोद बड़ाई । समउ समाज मनोहरताई ॥२॥ रामचन्द्रजी को देख और श्रीक्षा पा कर सिर नवा कर अपने अपने घर चले । उस समय के प्रेम, आनन्द और कुतुहल की बड़ाई तथा समाज की मनोहरता को-॥२॥ कहि न सकहिँ सत सारद सेसू । बेद बिरजिच महेस गनेसू ॥ सो मैं कहउँ कवन विधि बरनी । भूमिनाग सिर धर कि धरनी ॥३॥ लैकड़ों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, शिव और गणेश नहीं कह सकते। उसको मैं किस तरह बसान कर कह सकता हूँ, क्या भूनाग ( केचुआ ) धरती को सिर पर ले सकता है ? (कदापि नहीं)॥३॥ नृप सब भाँति सबहिँ सनमानी। कहि मुटु बचन बोलाई रानी ॥ वधू लरिकिनी पर घर आई । राखेउ नयन पलक की नाई ॥४॥ राजा सब तरह सभी का सम्मान कर के कोमल वचन कह कर रानियों को बुलाया और कहा कि बालिका बहुएँ पाये घर आई हैं, इनको नेत्र और पलक की भाँति रखना AR दो-लरिका नमित उनीद-अस, सयन करावहु जाइ । अस कहि गे बिशाम-गृह, राम-चरन चित लाइ ॥३५५॥ लड़के थके हुए नौद के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कह कर रामचन्द्रजी के चरणों में मन लगा कर विश्राम-भवन में गये ॥ ३५ ॥ - चौ. भूप बचन सुनि सहज सुहाये । जटित कनक-मनि पलँग डसाये । सुभग सुरभि पयफेन समाना । कोमल कलति सुपेती नाना ॥१॥ राजा के स्वाभाविक सुहावने वचन सुन कर मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग बिछवाये। सुन्दर गैया के दूध के फेन के समान कोमल (गहे पर) नाना प्रकार की सफेदी (चादरे) सजा