पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । होंगे । हे भामिनी ! यदि कीजिए तो मैं उपाय बतलाऊँ, क्योकि राजा श्राप की सेवा के वश में हैं ॥४॥ भुशाल' पद में शब्दशक्ति से लक्ष्यकम व्या है कि भरत धरती में स्थान बना कर रहेंगे । राजापुर की प्रति में हर तुम्हरी सेवा बस राज पाठ है। दो०-परउँ कूप तब बचन पर, सकउँ पूत पति त्यागि । कहसि मार दुख देखि बड़, कस न करब हित लागि ॥२१॥ केकयी ने कहा-तेरे कहने पर मैं कुएं में गिर पडूगी, पुन और पति को त्याग सकती हूँ। मेरा बड़ा दुःख देख कर तू भले के लिए कहेगी, उसको मैं क्यों न करूंगी? ॥२९॥ तेरे वचन पर कुएँ में गिरंगी और पुत्र पति का त्याग करंगो, यह एक वस्तु है। मेरा बड़ा दुःख देख कर कहे क्यों न करूँगी, यह 'वक्रोकि अलंकार' है । स्वतः सम्भनी वस्तु से 'अलंकार' व्यङ्ग है। चौ० कुबरी करि कबुली कैकेई । कपट-छुरी उर-पाहन देई। लखइ नरानि निकद दुख कैसे। चरइ हरित त्रिन बलि-पसु जैसे ॥१॥ कुवरी ने केकयी को कबूल करनेवाली बना कर कपर सपी छुरी को अपने हृदय रूपी पत्थर पर टेया अर्थात् शान दिया। रानो समीप के दुःख (वैधव्य और कलंक ) को कैसे नहीं लखती है, जैसे बलिदान (वध ) होनेवाला पशु (अपना तत्काल मरण न जान कर प्रसनता से) हरी घास खाता है ॥१॥ समा की प्रति में 'कुबरी करी कुबलि कैई पाठ है और सटीक रामायण द्वितीय पार जो १४२२ में छपी है उसमें संशोधन कर उपयुक्त पाठ रखा गया है । सुनत बात मृदु अन्त कठोरी । देत मनहुँ मधु साहुर घोरी ॥ कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही । स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥२॥ मन्थरा की बात सुनने में कोमल है परन्तु इसका परिणाम (नतीजा) भयानक है, ऐसा मालूम होता है मानों मीठा विष घोल कर देती हो। उसने कहा-हे स्वामिनी ! आप को याद है या नहीं, जो कथा श्राप ने मुझ से कही है ॥२॥ केकयी की कही हुई कथा को उसने स्मरण दिलाया कि जय शम्वरासुर से इन्द्र का युद्ध हो रहा था, तव राजा श्राप को साथ ले कर इन्द्र को सहायता करने गये थे। राजा का सारथी मारा गया और वे मूर्छित हो गये, तब आप सारथी का काम कर रथ को रणभूमि से बाहर भगा लाई । जब राजा दशरथजी होश में आये, तब आप की अद्भुत करनी पर बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि वर माँगा। उस समय कोई घर न माँग कर दो वरदान धरोहर की भाँति आपने राजा के पास रख कर कह दिया था कि मैं आगे आवश्यक होने पर चाहे जब माँग लूगी।