पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । रामहि देउँ कालि जुबराजू.। सजहि सुलोचनि मङ्गल-साजू ॥ दलकि उठेउ सुनि हृदय कठोरू । जनु छुइ गयउ पाक बनतारू ॥२॥ हे सुन्दर नेत्रवाली ! मैं कल रामचन्द्र को युवराज-पद दूंगा, तुम माल लाज अङ्गों में सजो। यह सुन कर केकयी का कठिन हाय काँप उठा, ऐसा मालूम होता है मानों पका हुश्रा यरतोर फोड़ा छू गया हो ॥२॥ पका हुआ फोड़ा दव जाने पर असहा वेदना होती ही है । यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। बरतोर फोड़ा होता तो छोटा है, पर उसमें पीड़ा और जलन अधिक होती है और छूने में बड़ा कठोर मालूम पड़ता है। ऐसिड पीर बिहँसि तेहिं गोई। चार-नारि जिमि प्रगटिन रोई ॥ लखी न भूप कपट चतुराई । कोटि कुटिल-मनि गुरू पढ़ाई ॥३॥ ऐसी (भयङ्कर) पीड़ा को भी उसने हँस कर इस तरह छिपा लिया, जैसे चार स्त्री प्रकट मैं नहीं रोती। राजा इस छल-चातुरी को न लख पाये, करोड़ो कुटिलों की शिरोमणि गुरु (मन्धरा) ने पढ़ाया है ॥३॥ केकयी ने ऐसी भीषण पीड़ा को भी हँस कर छिपा लिया, इस साधारण वात को विशेष से समता दिखाना कि जैसे चोर-स्त्री अर्थात् जो पति और कुटुम्बियों से छिप कर पराये पुरुष की प्रीति में संलग्न है और उसका जार मृतक हो गया, पर वह लोकलज्जा के भय से प्रस्ट में नहीं रोती 'उदाहरण अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में रोजा ने केकयी की कपट-चातुरी को नहीं लखा, इसकी पुष्टि हेतु-खुवक बात कह कर करते हैं कि राजा कैले लख पाते, जबकि करोड़ों दुष्टों की मणि मायरा गुरु ने इसे छत का पाठ पढ़ा रहा है । यह 'काव्यता अलं. कार' है । राजापुर की प्रति में 'लखहि म भूप कपट चतुराई' पाठ है। जद्यपि नीति-निपुन नर-नोहू । नारि-चरित जलनिधि अवगाहू ॥ सनेह बढ़ाई बहोरी । बोली बिहँसि नयन मुँह मेरी॥४॥ यद्यपि नरनाथ दशरथजी नीति में दक्ष हैं, परन्तु त्रिया चरित्र रूपी समुद्र घड़ा अथाह है। फिर फेफयो कपट का स्नेह बढ़ा कर हँसती हुई तिरछी चितवन से निहार मुंह मोड़ (वितास हाव दिखा) कर बोली ॥॥ पूर्वाद्ध में राजा को नीति-कुशल कह कर नियाचरित्र को अगाध समुद्र का रूपण कर के थाह लगाने में असमर्थ ठहराना 'काग्यलिङ्ग अलंकार' है। दो०-माँगु माँगु पै कहहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु । देन - कहेहु . बरदान · दुइ, तेउ पावत सन्देहु ॥२७॥ हे प्रिय ! आप माँग मांग तो कहते हैं, पर कभी कुछ न देते हैं न लेते हैं। पहले दो वर दान आपने देने को कहा है, उन्हीं के मिलने में सन्देह है (तव नया वर क्या मिलेगा !) ॥२७॥ 1 कपट.