पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६

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1 यह किम्बदन्ती प्रसिद्ध है कि अरण्यकाण्ड तक रामायण की रचना उन्होंने अयोध्यापुरी में की, मागे किसी कारण से काशी में चले आये और किष्किन्धा काण्ड से लेकर उत्तर काण्ड पर्यन्त यहीं पूरा किया। इसके प्रमाण में यह उदाहरण पेश किया जाता है कि इसी ले किष्किन्धा के प्रारम्भ में काशी का मंगलाचरण किया गया है। यथा से मुक्ति जन्म महि जानि, ज्ञानखानि अघ हानि कर। जहँ बस शम्भु-भवानि, सो कासी खेड्य कस न । जरत सकल सुर-वृन्द, विपम गरल जेहि पान किया। तेहि न भजसि मन-मन्द, को कृपाल शंकर सरिस ॥ कहते हैं रामचरितमानस के बन जाने पर काशी के पंडितों ने बड़ा विरोध किया, परन्तु गोसाईजी ने किसी के विरोध की विल भर भी परवाह नहीं की। वे अपने सिद्धान्त पर अटल रहे। पंडितों ने सभा कर के यह निश्चय किया कि हम लोग तो इस भाषा के ग्रन्थ को तभी मान्य समझेगे जब विश्वनाथजी इस पर सही कर देंगे। उनके प्रस्तावानुसार गोसाँईजी ने पुस्तक मन्दिर में रख दी और सवेरे देखा गया तो उस पर विश्वनाथजी ने स्वीकृति लिख दी थी। सब को यह देख महान माश्चर्य हुआ और विरोधी वर्ग लज्जित होकर फिर शादर करने लगा। इसमें सन्देह नहीं, रामायण काव्य की जितनी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है। लेखनशक्ति का चमत्कार, दार्शनिक विद्वत्ता, चरिश चित्रण की अलौकिक शक्ति, भाव को गम्भीरता, अध्यात्मिक वयों की सरल विवेचना और प्राकत दृश्य वर्णन की अभूतपूर्वयोग्यता आदि कहाँ तक कहें, एक आदर्श काव्य में जो जो गुण होने चाहिये वह सब रामायण में है। इसी कारण इसका प्रचार चरमसीमा तक पहुंच गया है और केवल हिन्दी साहित्य में नहीं, वरन् संसार के साहित्य में यह ग्रन्थ अद्वितीय भाना जाता है (१२) विनयपत्रिका-इस पुस्तक की रचना गोसाँईजी ने अत्यन्त अधीन होकर राग रागिनियों में की हैं । बहुतों का विश्वास है कि तुलसीदासजी का यह अन्तिम ग्रंथ है और जैसी कवित्वशक्ति उन्होंने इसमें प्रदर्शित की है वैसी दूसरे अन्यों में नहीं। कहने के लिये तो यह भाषा का अन्य है, परन्तु इसमें वेदान्त के गूढ़ रहस्य कूट कूट कर भरे हैं। ईश्वर प्राथना, भक्त दयोद्गार और आदर्श जीवन बनाने के उपदेश का यह अन्य भाण्डार है। भक्ति विषय में तो आज तक ऐसा अन्य नहीं लिखा गया। इस पुस्तक को यदि रामचरितमानस से बढ़ कर कहा जाय तो भी कुछ अत्युक्ति न होगी। हनूमानजी के द्वारा इसको रघुनाथजी ने स्वीकार किया है । गोसाईजी ने अन्त के २७४ च पद में इस प्रकार लिखा है। मारुति मन रुचि भरत की लजि लखन कही है । फलिफालाहु नाथ नाम सों, प्रतीति श्रीति- एक किङ्कर की निबड़ी है ॥१॥ सकल सभा मुनि लेइ उठो, जानि रीति रही है। कया गरीनिवाज की, देखत गरीष को साहेबबाह गही है ॥२॥ बिहँसि राम कहेड सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है । मुदित माथ नावत बनी, तुलसी अनाथ की परी रघुनाथ सही है ॥३॥ यह पुस्तक टीका सहित सजिल्द बेलवेडियर भेस, प्रयाग से ३) को मँगाइए ।, " 5