पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४१३ निज कर नयन काढ़ि चह दीखा । डारि सुधा विष चाहत सीखा। कुटिल कठोर कुबुद्धि अमागी । भइ रघुब्बस-बेनु बन आगी ॥२॥ अपने हाथ से अपनी आँखों को निकाल कर देखना चाहती है और अमृत फेंक कर विष का स्वाद लेना चाहती है । दुष्टा, कठोर, कुबुद्धी और अमागिनी केकया सूर्यवंश रूपी बाँस के वन के लिए अग्निरूपिणी हुई है ॥२॥ ज्ञापनी आँख फोड़ कर देखने की इच्छा करना विचित्र अलंकार' है। केकयी का नाम न लेकर उपमान को प्रधान बनाने में साध्यवसान लक्षणा है। पालव बैठि पेड़ एहि काटा । सुख महँ सोक-ठाट धरि ठाटा। सदा राम एहि प्रान सलाना । कारन कवन कुटिल-पल ठाना ॥३॥ इसने पत्ते पर बैठ कर पेड़ को काट डाला, सुख में शोक का ठार ठट लिया। इसको रामचन्द्रजी सदा माण के समान प्यारे थे, कौन सा कारण है कि ऐसी दुष्टता ठानी ? ॥३॥ सत्य कहहिँ कवि नारि सुभाऊ । सब विधि अगह अगाध दुराज ॥ निज प्रतिबिम्ब बरुक गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति आई॥४॥ कवि लोग सत्य कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब तरह से पकड़ के बाहर, अथाह, और कपट से भरा रहता है। चाहे अपनी परवाही पड़ी जाय, परन्तु हे माई ! स्त्रियों की गति नहीं जानी जाती ॥४॥ दो-काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ। का न करइ अबला प्रबल, केहि जग काल न खाइ ॥४॥ अग्नि क्या नहीं जला सकती और समुद्र में क्या नहीं समाता ? प्रचण्ड अबला (जी) क्या नहीं करती और काल संसार में किसको नहीं खाता ॥४॥ चौ०-का सुनाइ विधिकाह सुनावा। का देखाइ वह काह देखावा । .. एक कहहि मल भूपन कीन्हा । बरशिक्षारि नहिँ कुमतिहि दीन्हा॥१॥ हाय ! विधाता ने क्या सुना कर क्या सुनाया और क्या दिखा कर क्या दिखाना चाहते हैं। एक कहते हैं कि राजा ने अच्छा नहीं किया कि जो उस कुवुद्धी को बिना विचारे वर दे दिया ॥१॥ पुरवासियों के कहने का असली प्रयोजन तो यह है कि कहाँ सुना था रामराज्य होगा, उसके स्थान में वनयात्रा सुनते हैं, कहाँ आनन्द-माल देख रहे थे और कहाँ भीषण विषाद देख रहे हैं । परन्तु इस बात को सीधे न कह कर उसका प्रतिविम्म मात्र कहना 'ललित अलंकार' है।