पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७३

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रामचरित मानस । जो हठि अथउ सकल-दुख-लाजन । अबला-बिबस ज्ञान-गुन-माजन । एक धरम-परमिति पहिचाने । पहि दोस नहिं देहि सयाने ॥२॥ जो ( वरदान) हठ से सम्पूर्ण दुःखों का पान हुआ, शोक ! श्री के वशीभूत होने से राजा का ज्ञान और गुण नाश हो गया ! दूसरे जो धर्म की मर्यादा को पहचानते हैं वे चतुर मनुष्य राजा को दोष नहीं देते ॥२॥ पुरबालियों में राजा के सहसा प्रकृति परिवर्तन पर विस्मय उत्पन्न होना 'आश्चर्य स्थायीभाव' है । राजापुर की प्रति से 'भाजनु और गाजनु' पाठ है । यद्यपि 'न' भतर की मात्रा वैसा ही है जैसे गोलाँईजी ने दुनु, सुखु, धीरज, धदनु आदि शब्दों में मात्रा लगाई है उसी प्रकार गाजन को गाजतु तिखा है । परन्तु 'जनु' शब्द उत्प्रेक्षा का वाचक है, इससे यह श्रर्थ-स्त्री के अधीन होने से ऐसा मालूम होता है मानों राजा का ज्ञान और गुण चला गया" भी प्रसज्ञानुकूल प्रतीता होता है । सिबि घोचि हरिचन्द कहानी । एक एक सन कहहिँ बखानी । एक भरत कर सम्मत कहही। एक उदास-भाय सुनि रहहीं ॥३॥ राजा शिवि, दधीचि-मुनि और हरिश्चन्द्र नरेश का इतिहास एक दूसरे से बखान कर कहते हैं। एक भरतजी को सम्मति कहते हैं, दूसरे सुन कर उदास-भाव रह जाते हैं अर्थात् छाँया ना कुछ नहीं कहते ॥३॥ शिवि,दधीचि और हरिश्चन्द्र की कहानी वस्नान कर कहने में 'वाच्यसिद्धान गुणीभूत व्यङ्ग है कि सत्यवादी पुरुष अपनी प्रतिज्ञा को तन, प्राण और सर्वस्व देकर पूरी करते हैं, इसमें राजा को कोई दोष नहीं है । राजा शिवि और दधीचि की दानशीलता तथा सत्य-पालन का संक्षिप्त वृत्तान्त इसी कागज में २६ व दोहे के आगे चौथी चौपाई के नीचे की टिप्पली देखिये । अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र की कथा प्रसिद्ध है। इन्होंने अपना सर्वस्व राज्यभण्डार विश्वामित्र मुनि को दान देकर भूसीदक्षिणा चुकाने के लिए आप डेम के हाथ काशी में बिके और अत्यन्त भयङ्कर कष्ट सहन कर अपना सत्य निबाहा। कान नदि कर रद गहि जीहा । एक कहहिं यह बात अलीहा ॥ सुकृत जाहिँ अस कुहत तुम्हारे । राम भरत कहूँ प्रान-पियारे ॥४॥ कोई हाथ ले कान मूंद कर और दाँत से जीभ दबा कर कहता है कि यह बात झूठ है। ऐसा कहने से तुम्हारे सारे पुण्य मष्ट हो जायगे, क्योंकि भरत को रामचन्द्रजी प्राण के समान प्यारे हैं॥४॥ कान मूंद कर दांतों तले जीम दबाने में वजन की चेष्टा और आश्चय्यं -सूचक सहेत.. प्रकट करना है कि-अरे! यह क्या कहते हो? दो-चन्द चवइ बरु अनल-कन, सुधा होइ बिष-तूल। सपनेहुँ कबहुँ कि करहिं किछु, भरत राम-प्रतिकूल ॥४८॥ चाहे चन्द्रमा से भाग की चिनगारियाँ टपकने लगे और अमृत विष के बराबर हो जाय परन्तु का सपने में भी भरतजी कभी कुछ रामचन्द्रजी के विरुद्ध करेंगे (कदापि नहीं) ॥४८}} $