पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७४

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बिप्र-अधू द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । भरतजी कसी कुछ रामचन्द्रजी के प्रतिकूल न करेंगे, इसकी उत्कर्षता के लिए जो जो असम्भव-पूर्ण हेतु कल्पित किये गये हैं, वास्तव में वे उत्कर्ष के कारण नहीं है। यह तो स्वयम् सिद्ध बात है कि भरतजी जैले परम भागवत रामचन्द्रजी के विपरीत कार्य नहीं कर सकते, तो भी उसकी कल्पना करना प्रौदेोक्ति अलंकार है। चौ०-एक विधातहि दूषन देहाँ । सुधा देखाइ दीन्ह बिष जेहीं । खरमर नगर सोच सब काहू । दुखह दाह उर लिटा उछाहू ॥१॥ कोई विधाता को दोष देता है, जिसने अमृत दिखा कर विष दिया। नगर में खलबली पड़ गई सय के हदय में शोक से असहनीय दाह हुआ और उत्साह मिट गया ॥६॥ प्रस्तुत वर्णन तो यह है कि विधाता ने राजतिलक की तैयारी दिखा कर बनबास दे दिया। परन्तु इसे सीधे न कह कर उसका प्रतिबिम मान कथन 'ललित अलंकार' है। कुल-मान्य-जठेरी । जे प्रिय परम कैकई केरी ॥ लगी देन सिख सील सराही । बचन बान सम लागहिँ नाही ॥२॥ ब्राह्मणों की स्त्रियाँ और फुल की पूजनीय जेठी पृद्धाएँ जो केकयी की बड़ी प्यारी थी, वे फेशयो के शील की घड़ाई कर के शिक्षा देने लगी, परन्तु उनकी बातें उसको बाण के समान लगती हैं ॥२॥ भरत न मोहि प्रिय राम समाना । सदा कहहु यह सब जग जाना ॥ सहज सनेहू । केहि अपराध आजु बन देहू ॥३॥ तुम तो लदा कहती थीं कि रामचन्द्रजी के समान मुझ को भरत प्यारे नहीं हैं, इसको सव संसार जानता है। रामचन्द्र पर स्वाभाविक स्नेह करती रही हो, श्रान किस अपराध से उन्हें वन देती हो ? ॥३॥ कबहुँ न कियेहु सवतियारसू । प्रीति प्रतीति जान सब देसू ॥ कौसल्या अब काह बिगारा । तुम्ह जेहि लागि बज्न पुर पारा ॥४॥ तुमने कभी सवतियाडाह (दाँजारेसी ) नहीं की, तुम्हारी आपस की प्रीति और विश्वाल को सारा देश जानता है । अब कौशल्या ने क्या बिगाड़ा, जिसके लिए तुम नगर पर वज्ञ ढाह रही हो?॥४॥ दो०-सीय कि पिय सँग परिहरिहि, लखन कि रहिहहिं धाम। . राज कि पूँजब भरत पुर, नृप कि जिइहि बिनु राम ॥४॥ क्यासीताजी प्रीतम कासाथ छोड़ेंगी? क्या लक्ष्मणजी पर रहेंगे ? क्या भरतजी अयोध्या में राज्य भोगेंगे और क्या राजा बिना रामचन्द्र के जीवित रहेंगे ? (कदापि नहीं)॥४६॥ करहु राम पर