पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८५

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, रामचरितमानस । कलपबेलि जिमि बहु बिधि लाली । साँचि सनेह-सलिल प्रतिपाली ॥ फूलत फलत भयउ विधि बामा । जानि न जाइ काह परिनामा ॥२॥ कल्पलता जैसी बहुत तरह प्यार के साथ मैं ने स्नेह रूपी जल से सींच कर (जानकी का ) पालन-पोषण किया। फूलने फलने के समय विधाता टेढ़े हो गये, जाना नहीं जाता कि इसका परिणाम (नतीजा) क्या होगा ? ॥२॥ पलँग-पीठ तजि गोद हिंडारा । सिय न दोन्ह पग अवनि कठोरा। जिअनभूरि जिमि जोगवत रहऊँ । दोप-वाति नहि टारन कहऊ ॥३५ पलँग का श्रासन, गोद और हिण्डोला छोड़ कर सीता ने कठिन धरती पर पाँव नहीं रक्खा । मैं सजीवनी जड़ी जैसी इनकी रखवाली करती हूँ, कभी दीपक की बत्ती हटाने को नहीं कहती ॥३॥ 'पीठ' शब्द का कुछ लोग 'पीढ़ा' अर्थ करते हैं । यहाँ तात्पर्य कोमल श्रासन से है किन्तु पीड़ा कोई नरम पालन नहीं है। आगे 'चरन पीठ कहना निधान के पाठ पाया है, वहाँ केवल खड़ाऊँ का अर्थ ग्रहण होता है । न कि खड़ाऊँ और पीढ़ा । उसी प्रकार यहाँ 'पर्लंग-पीठ' से केवल शय्यासन का ग्रहण है, पीढ़ा नहीं । अमरकोश में 'पीठमासनम् पीठ शब्द आसन का पर्यायी कहा गया है। सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा ॥ चन्दकिरन-रस रसिक चकोरी । रबि-रुख नयन सकइ किमि जोरी ॥१॥ हे रघुनाथ ! वही सीता श्राप के साथ वन को चलना चाहती हैं, उन्हें क्या श्राहा होती है ? चन्द्रमा के किरणों के आनन्द को चाहनेवाली चकोरी सूर्य की श्रोर आँख कैसे जोड़ सकती है ॥४॥ माताजी के कहने का असली प्रयोजन तो यह है कि सीता वन-पर्वतों में कदापि रहने योग्य नहीं हैं, परन्तु इस बात को सीधे न कह कर उसका प्रतियिम्ब मात्र कथन करना 'ललित अलंकार' है। दो-करि केहरि निसिचर चरहिँ, दुष्ट-जन्तु बन भूरि । विष-बाटिका कि साह सुत, सुभग सजीवनि-मूरि ।।५। वन में हाथी, सिंह, राक्षस और बहुत से दुष्ट जीव फिरते रहते हैं । हे पुत्र ! क्या सुन्दर सञ्जीवनी बूटी विष कोयगीचे में शोभा देती है । ( कदापि नहीं) ॥6॥ चौ०-बनहित कोल-किरात-किसोरी। रची बिरचि बिषय-सुख-भारी । पाहन-कृमिजिमिकठिन सुभाऊ । तिन्हहि कलेस न कानन काज॥१॥ बन के लिए ब्रह्मा ने कोल-भीलों की लड़कियों को बनाया है जो भोग-विलास के सुख को जानती हा नहीं । पत्थर के कीड़े जैसा उनका कठोर स्वभाव होता है, उन्हें कभी वन में क्लेश नहीं होता॥१॥