पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९५

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1 रामचरित मानस तजब छोभ जनि छाड़िअ छोहू । करम कठिन कछु दोष न मोहू ॥ सुनि सियबचन सासु अकुलानी । दसा कवनि बिधि कहउँ बखानी ॥३॥ श्राप शोक त्याग और मुझ पर का स्नेह न छोड़ेंगी, मेरा कुछ दोप नही कर्म की गति कठोर है । लीताजी के वचन सुन कर कौशस्याजी घबरा गई, उनकी दशा किस तरह समान कर कहूँ ॥३॥ बारहिं बार लाइ उर लीन्ही । धरि धीरज सिख आसिष दीन्ही ॥ अचल होउ अहिवात तुम्हारा । जब लगि गङ्ग-जमुन-जलधारा ॥४॥ वारम्बार सीताजी को हदय से लगा लिया, धीरज धर कर सिखाया और आशीर्वाद दिया कि जब तक गङ्गाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे तब तक तुम्हारा महिवात अटल हो॥४॥ दो०-सीतहि सासु असीस सिख, दीन्हि अनेक प्रकोर । चली नाइ पद-पदुभ सिर, अतिहित वारहि बार ॥६॥ सीताजी को सासु ने अनेक प्रकार की शिक्षा और आशीर्वाद दिये। वे बारम्बार सासु के चरणकमलों में अत्यन्त प्रेम से सिर नवा कर चली ॥ ६॥ चौ०-समाचार जब लछिमन पाये। व्याकुल बिलखि कम्प-पुलक-ततनयन-सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा ॥१॥ जय लक्ष्मणजी ने यह समाचार पाया, तब वे व्याकुल होकर उदास मुँह से उठ कर दौड़े । उनका पुलकित शरीर काँपता है और आँखों में जल भर आया है, अत्यन्त प्रेम से अधीर होकर रामचन्द्रजी के पाँव पकड़ लिये ॥१॥ कम्प, अश्रु और गद्गता का होना सात्विक अनुभाष है। सभा की प्रति और गुटका मैं 'विलष-बदन' पाठ है। कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े । मीन दोन जनु जल त काले ॥ सोच हृदय बिधि का होनिहारा । सब सुख सुकृत सिरान हमारा॥२॥ कुछ कह नहीं सकते खड़े होकर निहारते हैं, ऐसे मालूम होते हैं मानों जल से निकाली हुई मछली दुखी हो । दृदय में सोचते हैं कि या विधाता ! क्या होनेवाला है। हमारा सब सुख और पुण्य चुक गया ? ॥२॥ मा कह काह कहब रघुनाथा । रखिहहिँ भवन कि लेइहहिँ साथा ॥ राम बिलोकि बन्धु कर जोरे । देह गेह सब सन ठन तारे ॥३॥ मुझे रघुनाथजी क्या कहेंगे? घर रखलंगे या किसाथ ले चलेंगे ? रामचन्द्रजी ने देखा कि भाई लक्ष्मण शरीर और घर सब से नाता तोड़ कर हाथ जोड़े खड़े हैं ॥३॥ बदन उठिधाये॥ ८