पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०१

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आवें। १४२ रामचरित मानसा तुम्ह कहँ बन सब भाँति सुपासू । सँगपितु-मातु राम-सिय जासू ॥ जेहि न राम बन लहहिं कलेसू । सुत साइ करेहु इइ उपदेसू v४ तुमको वन में सब तरह सुपीता है जिसके साथ में पिता रामचन्द्र और माता सीता हैं। जिससे रामचन्द्र वन में क्लेश न पाये, हे पुत्र ! तुम वही करना हमारा यही उपदेश है ॥ हरिगीतिका-छन्द । उपदेस यह जेहि तात तुम्हरे, राम-सिय सुखपावहीं। पितु मातुप्रिय परिवार पुर सुख, सुरति बन बिसरावहीं । तुलसी सुतहि सिख देइ आयसु, दीन्ह पुनि आसिप दई। रति होउ, अबिरल अमल सिय-रघुबीर-पद नित नित नई ॥३॥ हे पुत्र ! तुम्हारे लिए मेरा यही उपदेश है कि जिसमें रामचन्द्र और सीताजी सुन पावै । पिता, माता, प्यारे कुटुम्बी और अयोध्यापुरी के सुख की सुधि वन में तुलसीदासजी कहते है कि पुत्र को शिक्षा देकर वन जाने की आशा दी, फिर आशीर्वाद दिया कि सीता और रघुनाथजी के चरणों में तुम्हारी नित्य नित्य नवीन निर्मल और अटूट प्रीति हो ॥३॥ गुटका और सभा की प्रति में 'उपदेश यह जेहि जात तुम्हरे पाठ है । उसका अर्थ होगा कि-'मेरा यही उपदेश है कि तुम्हारे जाने पर जिसमें राम-जानकी सुख पावें, परन्तु राजापुर की प्रति में 'तात' पाठ है। सम्भव है कि काशी की प्रति में गोस्वामीजी ने इसका संशोधन कर 'जात' बना दिया हो। सो०-मातु चरन सिर नाइ, चले तुरत सङ्कित हृदय । बागुर विषम ताराइ, मनहुँ भाग मृग भाग-बस ॥५॥ माता के चरणों में सिर नवा कर मन में उरते हुए तुरन्त चले । ऐसा मालूम होता है मानों भीषण जाल (वन्धन) को भाग्य घश मृगा तुड़ा कर भाग निकला हो ॥5॥ लक्ष्मणजी और मृग, माता के रोकने की श्राक्षा और विषमजाल, जाने की आशा होना और जाल का तुड़ाना, माता कहीं फिर न पलट जाय और पुनः बन्धन का भय परस्पर उपमेय उपमान है । मृगा, जाल से छूट कर प्रसन्न होता ही है। यह उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा चौ०-गये लखन जहँ जानकिना) । भे मन मुदित पाइ प्रिय साधू । बन्दि शम-सिय-चरन सुहाये। चले सङ्ग नप-मन्दिर आये ॥१॥ जहाँ जानकीनाथ थे वहाँ लक्ष्मणजी गये और प्यारे का सहपा कर मन में प्रसन्न हुए। रामचन्द्र और सीता के सुहावने चरणों को प्रणाम कर साथ में चले और राजमन्दिर में अलंकार है। आये ॥१॥